शुक्रवार, 25 जून 2021

आपातकाल का इतिहास

 

25 जून 1975, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इस दिन को देश के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन की संज्ञा दी जाती है. 46 साल पहले आज के ही दिन देश के लोगों ने रेडियो पर एक ऐलान सुना और पूरे देश में खबर फैल गई कि सारे भारत में अब आपातकाल की घोषणा कर दी गई है. 46 साल के बाद भले ही देश के लोकतंत्र की एक गरिमामयी तस्वीर सारी दुनिया में प्रशस्त हो रही हो, लेकिन आज भी अतीत में 25 जून का दिन डेमॉक्रेसी के एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है. 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के बीच देश में 21 महीने तक आपातकाल लगाया गया. तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी. 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हो गया था. अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना था, 'भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है.'

अभिव्यक्ति का अधिकार तो छिना ही जीवन का अधिकार तक गया
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे. अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था. 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था. जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. जेलों में जगह नहीं बची थी. आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई थीं. प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी. हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया गया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था. सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी. यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई.

न्यायपालिका से टकराव बना आपातकाल की पृष्ठभूमि
लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था. यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना था. आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की. एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से से सुनाए गए फैसले में यह कहा था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है.

रायबरेली चुनाव निरस्त होने से खफा हो गई थीं इंदिरा गांधी
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को अभूतपूर्व जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े अंतर से जीती थीं. खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है. मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया. इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का फैसला किया. इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गई थीं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया.

आपातकाल में हर कदम पर संजय के साथ थीं मेनका
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे दिवंगत आरके धवन ने कहा था कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में आपातकाल को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था. और तो और, मेनका गांधी को आपातकाल से जुड़ी सारी बातें पता थीं और वह हर कदम पर पति संजय गांधी के साथ थीं. वह मासूम या अनजान होने का दावा नहीं कर सकतीं. दिवंगत आरके धवन ने यह खुलासा एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में किया था. धवन ने बताया था कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी. आपातकाल की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी. धवन ने बताया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी. वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे. धवन ने यह भी बताया था कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है. इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं.

पहले इस्तीफा देने को तैयार थीं इंदिरा
धवन ने कहा था कि आपातकाल इंदिरा के राजनीतिक करियर को बचाने के लिए नहीं लागू किया गया था, बल्कि वह तो खुद ही इस्तीफा देने को तैयार थीं. जब इंदिरा ने जून 1975 में अपना चुनाव रद्द किए जाने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश सुना था, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफे की थी और उन्होंने अपना त्यागपत्र लिखवाया था. उन्होंने कहा था कि वह त्यागपत्र टाइप किया गया लेकिन उस पर हस्ताक्षर कभी नहीं किए गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी उनसे मिलने आए और सबने जोर दिया कि उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए



मंगलवार, 15 जून 2021

चिराग के खिलाफ हुए 5 सांसद

 

लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के छह लोकसभा सदस्यों में से पांच ने, दल के मुखिया चिराग पासवान को संसद के निचले सदन में पार्टी के नेता के पद से हटाने के लिए हाथ मिला लिया है और उनकी जगह उनके चाचा पशुपति कुमार पारस को इस पद के लिए चुन लिया है।

वहीं, पारस ने सोमवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सराहना करते हुए उन्हें एक अच्छा नेता तथा ‘‘विकास पुरुष’’ बताया और इसके साथ ही पार्टी में एक बड़ी दरार उजागर हो गई क्योंकि पारस के भतीजे चिराग पासवान जद (यू) अध्यक्ष के धुर आलोचक रहे हैं।

हाजीपुर से सांसद पारस ने कहा, ‘‘ मैंने पार्टी को तोड़ा नहीं, बल्कि बचाया है।’’ उन्होंने कहा कि लोजपा के 99 प्रतिशत कार्यकर्ता पासवान के नेतृत्व में बिहार 2020 विधानसभा चुनाव में जद (यू) के खिलाफ पार्टी के लड़ने और खराब प्रदर्शन से नाखुश हैं।

पारस ने कहा कि उनका गुट भाजपा नीत राजग सरकार का हिस्सा बना रहेगा और पासवान भी संगठन का हिस्सा बने रह सकते हैं।

चिराग पासवान के खिलाफ हाथ मिलाने वाले पांच सांसदों के समूह ने पारस को सदन में लोजपा का नेता चुनने के अपने फैसले से लोकसभा अध्यक्ष को अवगत करा दिया है। हालांकि पारस ने इस संदर्भ में कोई टिप्पणी नहीं की।

पारस के पत्रकारों से बात करने के बाद चिराग पासवान राष्ट्रीय राजधानी स्थित उनके चाचा के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। पासवान के रिश्ते के भाई एवं सांसद प्रिंस राज भी इसी आवास में रहते हैं।

पारस और प्रिंस के आवास पर करीब 90 मिनट तक रुकने के बाद पासवान वहां से मीडिया से बात किए बिना ही चले गए। ऐसा माना जा रहा है कि दोनों असंतुष्ट सांसदों में से उनसे किसी ने मुलाकात नहीं की। एक घरेलू सहायक ने बताया कि पासवान जब आए तब दोनों सांसद घर पर मौजूद नहीं थे।

सूत्रों ने बताया कि असंतुष्ट लोजपा सांसदों में प्रिंस राज, चंदन सिंह, वीना देवी और महबूब अली कैसर शामिल हैं, जो चिराग के काम करने के तरीके से नाखुश हैं। 2020 में पिता रामविलास पासवान के निधन के बाद लोजपा का कार्यभार संभालने वाले चिराग अब पार्टी में अलग-थलग पड़ते नजर आ रहे हैं।

उनके करीबी सूत्रों ने जनता दल (यूनाइटेड) को इस विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि पार्टी लंबे समय से लोजपा अध्यक्ष को अलग-थलग करने की कोशिश कर रही थी क्योंकि 2020 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ जाने के चिराग के फैसले से सत्ताधारी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचा था।

 


शुक्रवार, 11 जून 2021

बिखरता कुनबा

 वैसे तो कांग्रेस पार्टी हमेशा सुर्खियों में रहती है,लेकिन इस बार राहुल गांधी के करीबी रहे जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल होने से यह फिर से चर्चा आई है।उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ऐन पहले जितिन प्रसाद का पार्टी छोड़ना भाजपा के लिए फायदेमंद होगा, उससे कहीं ज्यादा  कांग्रेस केलिए नुकसानदेह हो सकता है।आये दिन कांग्रेस के नेतागण पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, जिससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिमी है।ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जितिन प्रसाद का जाना राहुल गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका है।अब तो राजस्थान कांग्रेस का भी विवाद फिर से सुर्खियों में है और पंजाब में मुख्यमंत्री और नवजोत

सिंह सिद्धू आमने- सामने हैं।इन सबसे पता चलता है कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है और उसके अन्दरखाने का विवाद  पूरी तरह से सतह पर आ चुका है।देखना अब यह है कि पार्टी अपना कुनबा कितना संभाल सकती है? बेहतर होगा कि शीर्ष नेतृत्व इसको लेकर संजीदगी दिखाए।


गुरुवार, 10 जून 2021

हाशिये पर कांग्रेस

 ऐसे तो कांग्रेस पार्टी हमेशा सुर्खियों में रहती है।लेकिन इस बार राहुल गांधी के करीबी रहें जितिन प्रसाद के बीजेपी शामिल होने के बाद सुर्खियों में है।यूपी विधानसभा चुनाव से पहले जितिन प्रसाद का जाना भाजपा के लिए जितना फायदा होगा उससे ज्यादा कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।आये दिन कांग्रेस पार्टी के एक के बाद एक नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं ऐसे में शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिमी है।ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जितिन प्रसाद का जाना राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ा झटका है।अब तो राजस्थान कांग्रेस में भी विवाद फिर से सुर्खियों में है।राहुल गांधी के करीबी सचिन पायलट भी नाराज चल रहे हैं।उधर पंजाब में भी मुख्यमंत्री और सिद्दू आमने-सामने हैं। इससे पता चलता है कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है।कांग्रेस की परेशानी साफ दिखाई दे रही है।इतनी परेशान तो कांग्रेस कभी नहीं थी आज इस हालत में हो चुकी है कि अभी तक अपना अध्यक्ष का चुनाव भी नहीं करा पा रही है। क्या पता जून में होगा भी या नहीं ये कहना मुश्किल है? क्योंकि जिस प्रकार से नेतृत्व कांग्रेस कर रही है ये विचारणीय तो है ही।लगातार कांग्रेस कमजोर होती नजर आ रही है।हाल ही में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद राहुल गांधी ने यह कहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था कि अब गांधी परिवार से बाहर से कोई अध्यक्ष पद केलिए चयनित होगा।लेकिन आखिर में फिर से सोनिया गांधी को बना दिया गया।उसके बाद भी माना जा रहा था कि यह चुनाव कुछ समय केलिए ही की गई है,पर अब एक साल से ज्यादा हो चुकी है लेकिन अब तक कुछ हुआ नहीं।

ऐसा देखा गया है कि जो नेता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल करता है या गांधी परिवार से बाहर के नेता को अध्यक्ष बनाने की बात करता है वो या तो पार्टी से बाहर चला जाता है या वो पार्टी के नजरों में आ जाता है।

जहाँ तक जितिन प्रसाद की बात है तो वो एक समय में मनमोहन सिंह के सरकार में मंत्री हुआ करते थे लेकिन पिछले दो चुनाव में खुद अपना शीट नहीं बचा सके थे।बताया जा रहा है कि जब से उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी सक्रिय हुई है उसके बाद से ही जितिन प्रसाद हाशिये पर चले गए थे।अब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अपने नेताओं को बचा पायेगी या ऐसे ही पार्टी के नेता जाते रहेंगे और कांग्रेस हाथ पर हाथ रख के सोयी रहेगी या कोई स्थायी समाधान निकालने में सफल रहेगी।

कांग्रेस के लिए बेहतर होगा कि नेतृत्व को मजबूत करें और यही भी समझे कि इन सबका जिम्मेदार वह स्वयं खुद है।



रविवार, 6 जून 2021

बिहार के अनपढ़ महिला के मुख्यमंत्री बनने की कहानी दिखाती है 'महारानी,

 महारानी वेब सीरीज में एक अनपढ़ ग्रामीण महिला का किरदार निभा रही हैं, जिन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया जाता है।जिसको कहा जा रहा है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पर फिल्माया गया है।लेकिन मेरे नजर में 'महारानी' वेब सीरीज़ में लालू यादव-राबड़ी देवी की कहानी नहीं है, लेकिन उनकी जैसी राजनीति को क़रीब से दिखाने का प्रयास किया गया है। राबड़ी देवी ने अपने शासनकाल में किस तरह बिहार की राजनीति को प्रभावित किया, क्या बेहतर किया, क्या बर्बाद किया, यह सब समझना और जानना चाहते हैं तो वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अनुरंजन झा की किताब गांधी मैदान पढ़ना चाहिए।

अभिनेत्री हुमा कुरैशी ने ‘महारानी’ सीरीज में ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है।रानी भारती बिहार के एक गांव की  अनपढ़ साधारण औरत है और गाय,भैंस ,बकरी पाल कर अपना जीवन यापन करती है।हालांकि उसके पति बिहार राज्य के मुख्यमंत्री हैं।रानी भारती के जीवन में एक ऐसा  मोड़ आता है कि उसके पति को गोली मार दिया जाता है अचानक तबियत बिगड़ने लगती है।इसके बाद उस अनपढ़ महिला को मुख्यमंत्री बनाया जाता है।जो राजनीति को भी नहीं समझती है।हालांकि धीरे-धीरे राजनीति को भी समझती है और भ्रष्टाचार पर भी नकेल कसने की कोशिश भी करती है।पशुपालन जैसे तमाम घोटाले को उजागर भी करती है और अपने पति यानी पूर्व मुख्यमंत्री को जेल भी भेजवाती है।

अभिनेत्री का अभिनय काबिलेतारीफ है।जैसे किरदार है हूबहू उतारने का प्रयास की है।ठेठ बिहारी के रूप में जो अभिनय किया है वो देखने लायक है।बाकी कलाकारों ने भी कमाल का अभिनय किया है।

सीरीज की डायलॉग की बात करें तो डायलॉग एक से एक है एक डायलॉग जो मुझे काफी पसंद आई और याद भी है।जिसमें रानी भारती कहती है -"आप अपनी पत्नी से मिलना चाहेंगे, तो मैं मिलूंगी, अगर सीएम से मिलना चाहेंगे तो रानी भारती से मुलाकात होगी"।इस सीरीज की डायलॉग एक मजबूत कड़ी है।

अगर हम इस सीरीज की कमी की बात करें तो कई जगह खामियां नजर आई।कहीं कहीं कहानी को खींचने का प्रयास किया गया है जिसको थोड़ा कम करके भी दिखाया जा सकता था।सीरीज के बीच में एक बाबा को प्रवेश कराया जाता है जिसकी आवश्यक ही नहीं थी।

अंत में बस यहीं कहेंगे, सब कुछ नजरअंदाज करके थोड़ा समय महारानी सीरीज को दे दीजिए, राजनीति भी समझ जाएंगे, एंटरटेनमेंट भी हो जाएगा और कोरोना काल में एक शानदार सीरीज भी देख लेंगे और हाँ गांधी मैदान जरूर पढ़ें।



गुरुवार, 3 जून 2021

तीसरी लहर का डर

 कोरोना की पहली लहर और दूसरी लहर के बाद अब तीसरी लहर की चर्चा जोरों पर है।वैज्ञानिक अभी से ही कमर कसने की बात कर रहे हैं। वाकई, आग लगने पर कुआं खोदने से बेहतर होगा अविलंब तीसरी लहर के खिलाफ आगे की रणनीति बना लेनी चाहिए।तीसरी लहर में बच्चों के संक्रमित होने की आशंका सबसे ज्यादा जताई जा रही है।इसका ख़ास ध्यान रखकर पूरी योजना बना लेनी चाहिए,तब ही हम इस तीसरी लहर से सामना कर सकते हैं। अब सरकार को भी शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट बढ़ा देनी चाहिए।अगर हमारा समाज शिक्षित होगा तब ही इस अदृश्य वायरस से लड़ने में कामयाब हो सकते हैं।


अरुणेश कुमार, चंपारण (मोतिहारी)