रविवार, 28 फ़रवरी 2021

चुनाव यात्रा

 नेताओं को अपनी भागीदारी को समझना बहुत जरूरी होता है।लेकिन ये नेता लोग खुद को कभी भी उस लायक नहीं बना सकते हैं ताकि गरीब लोग उनको एक मसीहा के तौर पर देखें।अगर कुछ करते भी हैं तो सिर्फ चुनाव लड़ने केलिए किस व्यक्ति से किस प्रकार से वोट लेना या फिर वोट खरीदना है? ये तरीका बखूबी निभाते हैं।

लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुना गया व्यक्ति ही प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन जमीनी स्तर पर देखा जाए तो बड़ा हास्यास्पद लगता है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में ,जब मैं अपने गांव के  चौक-चौराहे पर घूम रहा था,उस वक्त लोगों से ओपिनियन लेने की कोशिश करता था।कभी कोई मिल गया तो बात कर लेते थे,जैसे कभी कोई कंडीडेट ही मिल गया तब चुनाव संबंधी बात हो जाती थी।सच तो ये भी है कि चुनाव के समय में पूरे देश में कोरोना अपने चरम पर था।ऐसे में बाहर निकलने में रिस्क़ तो था ही। खैर, तो मैं ऐसे ही एक मित्र के किराना दुकान पर बैठा हुआ था।तब ही एक बुजुर्ग औरत आयी,उम्र तकरीबन साठ-सत्तर के आसपास होगा।दुकानदार से सत्तु खरीद रही थी।समय तकरीबन दिन के एक बजे रहे थे।उसी समय चुनाव  प्रचार में निकले भाजपा की गाड़ी आगई। बुजुर्ग महिला गाड़ी को देखते ही बोलने लगी 'नेता सब खाली वोट लेवेला आवेला केहू ग़रीब के कुछ ना देवेला।आज हम दो दिन से भूखे बानी लेकिन केहू नेता हमरा से हाल चाल भी ना पूछे ला।गरीब के केहू करेवाला नइखे।अब आओ ना लोग तब बिना पैसा लेके ना देम।' मुझे बड़ा आश्चर्य लगा कि एक बुजुर्ग महिला वोट पैसे से देने की बात कर रही थी।फिर हमने पूछना शुरु किया। वोट पैसा लेके देम का? महिला का जवाब देते हुए बोली ' एकरा पहिले वोट देनी तब हमरा चापाकल ना मिलल, राशन में नाम कट गइल कोई नेता लोग मदद ना कईल।' अगला सवाल केतना पैसा में वोट देम ? फिर महिला का जवाब था एक हजार।अगला सवाल पूछने ही वाले थे कि महिला अपना समान लेकर चली गई।

कुछ ही देर में एक दूसरी महिला आई और बिना कुछ पूछे ही बोलने लगी 'हम तs वोट मोदी के ही देम'।फिर हमने सोचा कुछ पूछते हैं तब तक वो खुद बोलने लगी 'केहू के नमक खा के नमकखरामी ना करे के।आज हमरा घर मे गेहूँ-चावल ,तेल,बिजली, पानी सब मोदिया ही देले बा.हमनी का वोट ओकरे के देम'. फिर हमने पूछा 'अरे मोदी जी इहा थोड़े खड़ा बारनs'? महिला का बोलने लगी कि 'केहू होखो लेकिन वोट हम फूल छाप के ही देम'. दरअसल बिहार में चुनावी माहौल में जहाँ भी जाइए चौक-चैराहे हर जगह चुनाव पर चर्चा होना तो लाज़मी है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

ट्वेल्थ फेल : अनुराग पाठक

 

अनुराग पाठक की किताब ‘12th फेल.. हारा वही जो लड़ा नहीं’ नियो लिट पब्लिकेशन ने छापी है।अनुराग पाठक पेशे से डिप्टी कमिश्नर हैं।इस क़िताब को 2005 बैच मनोज शर्मा पर लिखी गई है।जो महाराष्ट्र कैडर से आईपीएस हैं।इस किताब में मनोज शर्मा के पूरा जीवन की कहानी लिखी गई है।
कहानी की शुरुआत ट्वेल्थ की पढ़ाई कर रहे मनोज से होता है।जो हर रोज खुद केलिए नहीं आस पास को दिखाने पढ़ता था।मैथ भी बोल कर पढ़ता था ताकि लोगों को यह पता चले कि मनोज पढ़ रहा है।पर ऐसे पढ़ने के कारण ही ट्वेल्थ फेल कर जाता है।इसके बात से ही उसकी जिंदगी में कैसे बदलाव आते हैं? क्या क्या परेशानियां एक गरीब परिवार के बच्चों को आती है? एक ग़रीब परिवार का लड़का कुत्तों को  घूमने का काम करते हुए कैसे आईपीएस का सफर तय करता है? कैसा रहा सफर टेम्पू चलाने से लेकर आईपीएस तक का यह जानने केलिए अनुराग पाठक की 'टवेल्थ फेल' (12th fail) को पढ़ना चाहिए।



बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

बेतुका बयान

अपने खून-पसीने से तैयार की गई फसल को क्या कोई किसान आग लगा सकता है? शायद कभी नहीं। कोई भी किसान बिना सोचे समझे ऐसा नहीं कर सकता है।क्योंकि वह अच्छी तरह से जानता है कि एक फसल को तैयार करने में कितना मेहनत और समय लगता है।हाँ पशुओं को चारा के रूप में खिला सकता है या फिर उसे मिट्टी में नष्ट कर सकता।परंतु जलाना तो शायद किसान नहीं कर सकता है।ऐसे में किसानों के नेता राकेश टिकैत का कहना कि किसान अपने फसलों में आग लगा देंगे, बिल्कुल सही नहीं है।यह बयान काफी आपत्तिजनक एवं हानिकारक बयान है। उन्हें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि वो एक किसान नेता हैं और एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व कर रहें हैं।ऐसे में उनके एक-एक बयान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।इस तरह से बेतुका बयान देने की बजाय उन्हें अपने साथियों के साथ मिलकर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

रुकतापुर : पुष्यमित्र

 

रुकतापुर' , घुमंतू पत्रकार पुष्यमित्र द्वारा रचित पुस्तक में बिहार के 73 वर्षों का लेख-जोखा है।इस किताब को एक पत्रकार की डायरी कह सकते हैं।जिसमें पुष्यमित्र के द्वारा आँखों देखी घटनाओं को तथ्यपरक विश्लेषण किया गया है।पुष्यमित्र ने  पूरी कहानी एक रिपोर्टर के अंदाज़ में ही लिखी है-
पुष्यमित्र पहले रेलों की ख़बर लेते हैं. किताब का नाम 'रुकतापुर' भी रेलवे की दुनिया से ही लिया गया है. 2015 में वे सहरसा से सुपौल जा रहे हैं. वे जिस ट्रेन में बैठे हैं, वह राघोपुर तक जाती है. बुलेट ट्रेन की कल्पना और चर्चा के इस ज़माने में इस ट्रेन को सहरसा से राघोपुर की 63 किलोमीटर की दूरी तय करने में चार घंटे लगते हैं- यानी 16 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार. मैदानी इलाक़ों में इतनी धीमी ट्रेन शायद ही दुनिया के किसी हिस्से में हो. पता चलता है, यह ट्रेन कहीं भी रोक ली जाती है. ऐसा ही एक स्टेशन है- मुक्तापुर, जिसकी तर्ज पर लोगों ने रुकतापुर बना लिया- यानी जहां भी ट्रेन रोक दी जाए- वह रुकतापुर स्टेशन है.ट्रेनों की कहानी को पुष्यमित्र बिल्कुल पटना तक ले आते हैं. 2018 तक पटना के हड़ताली मोड़ से चलने वाली एक ट्रेन का ज़िक्र बिल्कुल हैरान करने वाला है. जिसने वाकई वह ट्रेन चलती नहीं देखी है, उसके लिए यक़ीन करना मुश्किल होगा कि बीच पटना से ऐसी ट्रेन भी गुज़रा करती थी जिसे लोगों को सड़क से हटाने के लिए हॉर्न बजाना पड़ता था और कभी-कभी पटरी से लगी किसी गाड़ी के हटाए जाने का इंतज़ार करना पड़ता था. वे इस बात को पहचानते हैं कि बिहार में ट्रेनें बस मज़दूरों को ढोने और बाहर से पूजा के अवसरों पर घर लाने का काम कर रही हैं.

2019 में पूरे देश की नज़रें मुज़फ़्फ़रपुर की तरफ तब जा मुड़ी थी जब वहां इंसेफेलाइटिस यानी चमकी बुखार से बच्चों की मौत की खबरें सामने आ रही थी. लेखक ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक साफ दृष्टि देने का काम किताब में किया है. जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पतालों तक की कमी है और डॉक्टर तो डिबिया लेकर घूमने पर भी नहीं मिलेगा.


आंकड़ों का हवाला देकर लेखक बताता है, ‘राज्य सरकार ने जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जानकारी दी थी कि उनके राज्य में डॉक्टरों के 57 फीसदी पद और नर्सों के 71 फीसदी पद रिक्त हैं.’

इससे साफ समझा जा सकता है कि प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं का आखिर हाल कैसा होगा. कोरोना काल का ही जिक्र करें तो हमारे सामने ऐसी कई तस्वीरें आई थी जहां अस्पतालों में डॉक्टर नहीं है और स्टाफ की भारी कमी का सामना लोगों को अपनी जान गंवा कर करना पड़ा. ये भी विडंबना ही कही जाएगी कि महामारी के दौरान ही राज्य में कई बार स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को बदलना पड़ गया.

बिहार में महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. एक तरफ तो वो शोषण का शिकार होती हैं वहीं सामाजिक दंश को भी झेलती हैं. लेखक उन प्रसंगों का ज़िक्र करता है जहां उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आकर लोग प्रदेश की बेटियों से शादी करते हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई दिल-दहलाने वाली है. उन प्रदेशों में उनके साथ काफी खराब बर्ताव होता है और तस्करी का पूरा रैकेट काम करता है. लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि प्रदेश की महिलाओं की शादियां भी नहीं होती हैं जिसके कारण जीवन काटना उनके लिए दूभर हो जाता है.

रोज़गार के सवाल पर भी प्रदेश की स्थिति काफी खराब है. प्रवास इस राज्य की हकीकत बन गई है. राज्य में नए उद्योग लग नहीं रहे हैं और जो पहले से हैं उनकी उतनी क्षमता नहीं है कि वो लोगों को रोज़गार दे सके. इसलिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे राज्यों की तरफ लोगों को रोजगार की तलाश में जाना ही पड़ता है.

बिहार की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. रेलवे,बेरोजगारी,गरीबी, स्वास्थ्य, देहव्यापार, बाल विवाह, बिजली ,बाढ़,पानी जैसे तमाम समस्याओं का लेखा-जोखा  अपने कलमों के माध्यम से  उजागर करने का प्रयास किया है।कुल मिलाकर यह किताब कड़वाहट भरा तो है ही दर्द भरा भी है।बिहार के  तमाम घटनाओं को जानने समझने के लिए इस किताब को पढ़ सकते हैं।जो सरकार और बिहार की जमीनी हकीकत को बतलाती है।इस किताब (रुकतापुर) को राजकमल  प्रकाशन ने छापा है।



जनता पस्त , सरकार मस्त

 जो लोग कल तक पेट्रोल-डीजल और गैसों की महंगाई पर साइकिल और गैस सिलेंडर लेकर बाहर निकल जाते थे।वो आज कल चुप्पी साधे हुए हैं।उनके लिए ये महंगाई देशहित है।वो ये बताने में पुर जोर तरीके से जुट गए हैं कि देश के राजस्व में वृद्धि हो रही है।जब 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी तब लोगों को उम्मीद थी कि महंगाई पर लगाम लगेगी।क्योंकि तत्कालीन विपक्ष में बैठे नेताओं का अहम मुद्दा था "बहुत हुई महंगाई की मार,अबकी बार मोदी सरकार"।नोटबन्दी के बाद प्रधानमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 2014 से पहले हेडलाइन बनती थी महंगाई, लेकिन अब कोई मुद्दा नहीं है।पर,आज पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहें हैं और गैस की कीमत घर में आग लगा रही है।सच्चाई तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत में कोई खास वृद्धि नहीं हुआ है लेकिन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों मिलकर एक्साइज ड्यूटी और टैक्स लगा कर अपनी अपनी तिजोरी भरने में लगी है।इधर महंगाई आम जनमानस की कमर तोड़ने में लगी है।महंगाई के अनुपात में लोगों की आमदनी भी बढ़ती तो कुछ हद तक जायज होता।लेकिन यहां जनता पस्त और सरकार मस्त हो चुकी है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस सरकार की बुनियाद ही महंगाई थी वो आज महंगाई पर चुप्पी साधे हुए  कैसे बैठ सकती है।यह अपने आप में  हास्यास्पद लगता है।




अतिक्रमण

शहर की प्रमुख सड़कों पर अतिक्रमण के कारण आए दिन जाम लग रहा है। नगर पालिका प्रशासन व अन्य जिम्मेदार तमाम प्रयासों के बाद भी शहर की प्रमुख सड़कों से अतिक्रमण हटवाकर जाम की समस्या का निराकरण नहीं करा पा रहे हैं। इसका खामियाजा शहरवासियों को जाम में फंसकर भुगतना पड़ता है।हालांकि समय-समय पर अतिक्रमण हटाने के लिए कार्रवाई भी की जाती है लेकिन उसके कुछ दिन बाद उन स्थानों पर अतिक्रमण फिर से हो जाता है।कहीं-कहीं दुकानों के आगे ठेले वालों ने मार्ग को घेर रखा है. साथ ही कस्बे के मुख्य चौराहे पर डग्गामार वाहनों और टेंपो वालों का कब्जा रहता है. इसके कारण यहां से एक गुजरने वाले वाहनों को घंटों जाम से जूझना पड़ता है. इस कारण आए दिन कोई न कोई घटना होती रहती है. आलम यह है कि एंबुलेंस तक जाम में फंस रह जाती है लेकिन प्रशासन का इस तरफ कोई ध्यान नहीं है. अब प्रशासन से मांग  है कि जल्द ही शहर को अतिक्रमणमुक्त किया जाए. ताकि जाम के झाम से लोगों को निजात मिल सके.

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

स्वच्छता मिशन की हकीकत

  2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत मिशन देश भर में व्यापक तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में शुरू किया गया था।साथ ही केंद्र सरकार ने 2 अक्टूबर 2019 तक खुले में शौंच मुक्त  भारत को हासिल करने का लक्ष्य रखा था और महात्मा गांधी के जन्म की 150 वीं वर्षगांठ तक ग्रामीण भारत में 1.96 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित लागत के 1.2 करोड़ शौचालयों का निर्माण करने का भी लक्ष्य रखा गया था।जिसे सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरा भी किया जा चुका है।सरकारी योजनाएं कोई भी हो भ्रष्टाचारी अधिकारी कर्मचारी उसमें पैसे कमाने का तरीका खोज ही लेते है। इसी तरह से स्वच्छ भारत अभियान में पैसे कमाने के लिए अधिकारियों ने अनोखे जुगाड़ बनाया। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत शौचालय निर्माण के लिए लाभार्थियों को 12-12 हजार रुपये देने के बजाय कथित तौर पर दलालों के जरिये हड़प लिए गए जा रहें।अगर जाँच हो तो मिशन के तहत बनने वाले शौचालय में लाखो का घोटाला सामने आ सकती है, एक ही शौचालय की फोटो को कई कई शौचालय की फोटो दिखाकर  योजनाओं का लाभ उठा जा चुका है।जितने भी शौचालय बनाये गए थे वो अब जर्जर हालात में पाए जा रहे हैं।फिर से लोग बाहर जाने को मजबूर हो गए।इसकी स्वतंत्र न्यायिक जांच होनी चाहिए।


शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

डार्क हॉर्स' : नीलोत्पल मृणाल

 

डार्क हॉर्स' नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास है जिसकी कहानी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है।इसकी टैग लाइन है 'एक अनकहीं दास्तां...'।
 ‘‘डार्क हॉर्स’ महज एक उपन्यास भर नहीं हैबल्कि छात्र जीवन की अनगिनत अनकही कहानियों का संग्रह हैजो सभी छात्रों के जीवन से ताल्लुक रखता है।खासकर वैसे छात्र जो मुखर्जीनगर में जाकर सिविल सर्विस की तैयारी कर रहें होते हैं।

'डार्क हॉर्स’ का मुख्य किरदार संतोष बिहार के भागलपुर से सिविल सर्विस की तैयारी के लिए दिल्ली आता है। उत्तर प्रदेशबिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों से सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए लड़के या तो इलाहाबाद का रुख करते हैं या तो दिल्ली का। खास तौर से हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाले लड़कों के लिए ये दो जगहें ही महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। जो थोड़े कमजोर घर से होते हैंवे इलाहाबाद रह कर तैयारी करते हैंऔर जो थोड़े साधन-संपन्न होते हैंवे दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपना ठीकाना बनाते हैं।
‘जेतना दिन में लोग एमए - पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा।’  नीलोत्पल मृणाल की यह लाइन काफी अच्छी लगी ,प्रभावशाली भी।साथ ही सिविल सर्विस के तैयारी कर रहे हैं उन छात्रों के लिए है जो बिहार- यूपी से तमाम ख़्वाब लेकर दिल्ली, इलाहाबाद जाते हैं।
इस उपन्यास को पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि हम स्वयं मुखर्जीनगर के उन गलियारों में घूम रहे हैं जहाँ के हर-गली,मोहल्ला सिविल सर्विसेज के छात्रों से भरा पड़ा रहता है।जहां सबके जुबान पर भोजपुरिया टोन के माहौल देखने को मिलता है।यह भी नजर आता है कि छात्र किस तरह से खुद को माहौल के अनुसार समझौता कर लेता है।
इस किताब में सिर्फ सिविल सर्विस के तैयारी ही छात्रों की कहानी ही नहीं, बल्कि उनके गांव - शहर,संस्कृति, भाषा ,रहन-सहन, खानपान से लेकर उनके विचारों को दिखाने का प्रयास किया है। 'नीलोत्पल मृणाल' ने। 

दिल्ली के मुखर्जीनगर से लेकर यूपी-बिहार  गांवो का सफर करना चाहते या सिविल सर्विस के तैयारी कर रहें छात्रों के जीवंत घटनाओं से परिचय होना चाहते हैं तो 'डार्क हॉर्स' पढ़ सकते हैं।



गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

नल जल योजना के हकीकत

 जिस तरह से बिहार में कोरोना टेस्टिंग के घोटाले सामने आ रहे हैं उस तरह से नल जल योजना भी सवालों के घेरे में है।हर घर नल का जल योजना की शुरूआत 2017 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की थी। लेकिन तीन वर्ष बाद भी योजना पूर्ण नहीं हो पाया है। इसके साथ ही कई जगहों पर तमाम घोटाले देखने को मिल रहे हैं।सरकार सिर्फ यह प्रचार करने में लगी रहती है कि हमने नलजल योजना के माध्यम से हर घर पानी पहुँचाने में सफल रहें।लेकिन क्या सरकार कोई सर्वे करा पाई है,क्या कोई डाटा है सरकार के पास ,इस योजना के अंतर्गत कितने लोग पानी का इस्तेमाल कर रहें हैं या नहीं? कई ऐसे जगह देखने को मिल रहा है जहां देखने केलिए टंकी लगा दिया गया है लेकिन पानी आज तक किसी के घर पहुँच नहीं पाया।कई ऐसे जगह है जहां कार्य शुरू होकर भी आज तक समाप्त नहीं हो पाया है।कई ऐसे जगह है जहाँ सिर्फ उदघाटन  होने के साथ पानी पहुँचना शुरू तो हुआ लेकिन उसके बाद आज तक लोग तरस रहे हैं पानी के लिए।कई वार्ड ऐसे हैं, जहां योजना पूरा कर लिया गया है, लेकिन हर घर तक पानी नहीं पहुंच पाया है।आये दिन इन योजना में घोटाले सामने आरहे हैं।




बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

महंगाई की मार

 कोरोना काल में आम आदमी की जेब तो ऐसे ही ढ़ीली पड़ गई है।अब ये महंगाई आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है।पिछले कुछ दिनों से लगातार पेट्रोल, डीज़ल और गैसों के दाम में बढ़ोतरी हो रही जिसे आम आदमी महंगाई के बोझ तले दबता चले जा रहा है।

एक तरफ पेट्रोल कुछ शहरों में शतक लगा चुका है ,दूसरी तरफ गैसों के दाम में आए दिन बढ़ोतरी की जा रही है।अगर ऐसे ही गैसों के दाम बढ़ते रहे तो आम आदमी फिर से जीवाश्म ईंधन प्रयोग करने केलिए मजबूर हो जाएंगे।

पिछले 10 दिनों के भीतर  रसोई गैस के सिलेंडर में 75 रुपये की बढ़ोतरी की गई है।यही नहीं, दो महीने के भीतर सिलेंडर की कीमत में 175 रुपये की वृद्धि की जा चुकी है. आज के समय में राजधानी दिल्ली में एक सिलेंडर 769 रुपये का बिक रहा है।इससे आम जन जीवन प्रभावित हो रहा है।सरकार को चाहिए कि आम आदमी के समस्याओं को समझते हुए महंगाई को कम करने का कोशिश करें।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

हिंसक होना देशहित व समाज हित कतई नहीं

 युवाओं को हिंसक गतिविधियों में शामिल होना बड़ा चिंतनीय विषय है।हाल ही में बिहार सरकार ने एक नई दिशा-निर्देश जारी की है कि हिंसक-गतिविधि में शामिल युवाओं को अनुबंध के आधार पर सरकारी नौकरी में शामिल नहीं की जायेगी।सरकार चाहती है कि हमारे युवा हिंसक न हो।बेशक हिंसक होना देशहित व समाजहित में कतई नहीं है।लेकिन सरकार के इस नियमावली में एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि अगर युवा जायज मांग केलिए आंदोलन-प्रदर्शन कर रहें हो और कुछ असामाजिक तत्वों के लोग आंदोलन को हिंसक रूप में परिवर्तित कर दें तब क्या होगा? ज्यादातर देखा गया है कि हिंसक आंदोलन में निर्दोष लोग ही फंस जाते हैं।पुलिस की क्या भूमिका रहती है इसे कहने की जरूरत नहीं है?राजनीतिक दलों की क्या भूमिका रहती है यह भी कहने की जरूरत नहीं है?

गंभीर आपराधिक रूप से लिपटे लोगों के लिए तो पहले से ही कानून थे लेकिन अब हिंसा में शामिल लोगों केलिए यह प्रावधान लाई जा रही है।ताकि युवा इस डर से सरकार के विरोध में कोई आंदोलन न करें।
लेकिन ये प्रावधान तो सिर्फ युवाओं के लिए है तो क्या सरकार उन नेताओं पर अंकुश लगाएगी जो किसी राजनीतिक आंदोलन को हिंसक रूप देते हैं? क्या उन नेताओं के लिए चुनाव न लड़ने का कोई प्रावधान ला सकती है? 



बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

पत्रकारिता का संकट

सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों पर कार्रवाई को लेकर इन दिनों लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं।अभी खबरें आ रही है कि न्यूज़क्लिक के ऑफिस में ईडी ने छापा मारा है।  हाल ही में सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन को कवर कर रहे पत्रकार मनदीप पूनिया को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। इसका भी सोशल मीडिया पर जोरदार विरोध हुआ था। इसके बाद दिल्ली की एक अदालत ने पूनिया को जमानत दे दी थी। 
किसान आंदोलन से जुड़ी ख़बरों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राजदीप ,मृणाल पाण्डेय, कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित पत्रकार परेश नाथ, अनंत नाथ और विनोद के जोस के ख़िलाफ़ दिल्ली, नोएडा में एफ़आईआर हो चुकी है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर सरकार की खासी आलोचना हो रही है। 
हालांकि मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए छह पत्रकारों और कांग्रेस सांसद शशि थरूर को बड़ी राहत दी है। अदालत ने कहा है कि अगले आदेश तक इन लोगों को गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता है। 


मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

विपक्ष का संकट

 

एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी समझा जाता है. विपक्ष सरकार के कार्यों और नीतियों पर सवाल उठाता है और उसे निरंकुश होने से रोकता है.



संसद में अगर विपक्ष कमज़ोर होता है तो मनमाने तरीके से सत्ता पक्ष कानून बना सकता है और सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी बहस मज़बूत विपक्ष के बिना संभव नहीं है.लेकिन मौजूदा वक्त में वही विपक्ष अगर सवाल करता है तो बड़ा हास्यास्पद लगता है।क्या आप के पास कोई आकड़ा है कि किसान आंदोलन में अभी तक कितने किसानों ने खुदख़ुशी की है?तब सरकार का जवाब आता है नहीं हमारे पास कोई आकड़ा नहीं है।यहां तक मौजूदा वक्त में विपक्ष के साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है चाहे वो सकारात्मक सवाल क्यों न उठा रहा हो लेकिन सत्ता पक्ष जवाब देने के बजाए नकारात्मक साबित करने केलिए एक अलग माहौल चला देती है।

दरअसल बीते अस्सी दिनों से चल रहे आंदोलन में लगभग दो सौ से अधिक किसानों की जाने जा चुकी है।लेकिन सरकार के पास कोई आकड़ा नहीं है।यह आंदोलन एक बड़ा सवाल खड़ा कर रही है।अगर किसान बिल किसानों के हित में है तो क्यों आज तक मोदी सरकार किसानों को समझाने में नाकाम रही है?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

कांग्रेस का संकट

 देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लगातार चर्चा का विषय बनते जा रहा है।पहले बताया गया था कि मई में चुनाव होगा परंतु अब जून में होगी।भले ही अब जून में  होगा लेकिन क्या पता जून में होगा भी या नहीं ये कहना मुश्किल है।क्योंकि जिस प्रकार से नेतृत्व कांग्रेस कर रही है ये विचारणीय तो है ही।लगातार कांग्रेस कमजोर होती नजर आ रही है।हाल ही में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद राहुल गांधी ने यह कहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था कि अब गांधी परिवार से बाहर से कोई अध्यक्ष पद केलिए चयनित होगा।लेकिन आखिर में फिर से सोनिया गांधी को बना दिया गया।उसके बाद भी माना जा रहा था कि यह चुनाव कुछ समय केलिए ही की गई है,पर अब एक साल से ज्यादा हो चुकी है लेकिन अब तक कुछ हुआ नहीं।यह सत्य भी है कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर न रहते हुए भी पार्टी का फैसला लेते रहें हैं।जब राहुल गांधी के निशाने पर सीधा प्रधानमंत्री मोदी होते हैं तब कांग्रेस अपने ही नेता अपने ही से लड़ रहे होते हैं।चाहे वो मध्यप्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया हो या फिर राजस्थान में गहलोत और पायलट हों।  पिछले कुछ सालों में देख गया है कि पार्टी अपने किसी एक स्टैंड पर खड़ी नहीं होती है।हाल ही में  कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल समेत कई नेताओं ने पार्टी नेतृत्व पर सवाल खड़ा कर चुके हैं।


मेरा मानना है कि कांग्रेस मतलब गांधी परिवार पार्टी के ही कुछ चाटुकारों से घिर गया है।ये चाटूकार अपने स्वार्थ केलिए गाँधी परिवार की चमचागिरी करते रहते हैं।यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि पार्टी के सदस्यगण खुद फैसला लेने के बजाए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर छोड़ देते हैं।तब यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सोनिया गांधी अपनी  पार्टी के अंदरूनी मामला को सुलझा पायेगी? यह कहना भी मुश्किल है कि कब कांग्रेस नेतृत्व अपने को मजबूत कर पाएगी और अध्यक्ष पद का चुनाव कब तक करेगी ?

समस्या यह नहीं है कि हर फैसला सोनिया गांधी के नाम पर टाला जा रहा है बल्कि यह है कि उन मुद्दों पर कहीं कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा है।

कांग्रेस केलिए बेहतर होगा कि नेतृत्व को मजबूत करें और यही भी समझे कि इन सबका जिम्मेदार वह स्वयं खुद है।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

डायरी -3

 प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा जहान

तु मुमताज हैं मेरे ख्वाबो की मै तेरा शाहेजहा


ये गीत जब भी सुनता हूँ।सबसे पहले तुम्हारा ही ख्याल आता है।आज भी मैं तुम्हारी  ही आवाज में सुनना पसंद करता हूँ।अरे आज कल  तो पहले से ज्यादा सुनने लगा हूँ।

पता नहीं मुझे , तुम्हें याद है या ये भी भूल गई।पर मैं तो चाह कर भी नहीं भूल सकता हूँ।

चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते हर वक्त याद आती रहती  हो।तुम में क्या बात है, वो मैं भी नहीं जानता, लेकिन तुम  में कुछ न कुछ तो जरूर है।इसलिए तो चाह कर भी नहीं भूल पाता हूँ।

मानता हूं अब सिर्फ औपचारिकता ही रह गया है।अब पहले जैसा कुछ नहीं पर मैंने हर वो पल को बचा रखी है जो कभी हमने महसूस किए थे।

जब तक हम एक थे तब तक बिना एक दूसरे का हाल जाने बगैर चैन से न रह पाते थे।पर अब तो ऐसा कुछ न होता है।नाराजगी तो उस वक्त भी होती थी पर रूठना मनाना तो अहम हिस्सा था।

सच पूछो तो मैंने कभी सोचा नहीं था कि इतनी छोटी वक्त के लिये आओगी।

सच में ये उम्मीद भी कितनी अजीब है नlसब जानते हुए भी एक उम्मीद बची है कि सब कुछ पहले जैसा हो जाने की उम्मीद।घण्टों बात करने की उम्मीद,फिर से वही फ़ोन कॉल की उम्मीद।उम्मीद है लौट आने की।पर ये उम्मीद तो हर रोज टूटी है फिर पता न ये उम्मीद होती क्यों है?