शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

आरएसएस संघ का सफर : 100 वर्ष

 वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपनी नई किताब  ‘आरएसएस- संघ का सफर: 100 वर्ष ‘ में संघ की विचारधारा, उसके संविधान, सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बताने की कोशिश की है।



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. जैसे महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी, देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना और लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश. इन्हीं तमाम सवालों के जरिए RSS को हमेशा कटघरे के खड़ा किया जाता रहा है।

"प्रसून जी यही सवाल उठाते हैं कि संघ जिस रूप में अभी खुद को देख रहा है जहां सत्ता के सामने उसे भी नतमस्तक होना पड़ गया है तो ऐसे में क्या भाजपा की सियासत सिमटने की स्थिति में संघ फिर से जनसंघ और उसके बाद भाजपा जैसा प्रयोग करेगा? ये सोचने वाली बात है. न सिर्फ संघ पर दृष्टि रखने वाले लोगों को बल्कि संगठन के भीतर के लोगों को भी. और इस क्रम में कुछ उलझनों को जरूर प्रसून की किताब सुलझाने का काम कर सकती है."

'किताब का पहला अध्याय है " संघ की विचारधारा : सत्ता" से शुरू होती है। शुरुआत में ही  अटलबिहारी वाजपेयी के इस प्रकार के एक कथन से होता है कि विचारधारा पर अटल रह कर राजनीति नहीं की जा सकती है।


इसी में आगे संघ के गुरु गोलवलकर साफ शब्दों में यह कह कर फारिग हो जाते हैं कि, बिल्कुल की जा सकती है और दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं।

गोलवलकर की इतनी साफगोई के बाद भी यहां पूरा विषय असमाधित ही रह जाता है। वाजपेयी अंत तक गुरु जी से दिशा-निर्देश मांगते रह जाते हैं और गुरु जी इतना कह कर ही शांत हो जाते हैं कि हमें जो कहना था, कह दिया — समझदार को इशारा ही काफी है — और आगे की गाड़ी इसी ऊहा-पोह में अपनी गति से चलने के लिए छोड़ दी जाती है।


हम यहां यह बुनियादी सवाल उठाना चाहते हैं कि किसी भी राजनीतिक संगठन में विचारधारा और राजनीति को लेकर आखिर यह स्थिति पैदा कैसे होती है ? अक्सर तमाम संगठनों में यह बात किसी न किसी मौके पर सिर उठाती हुई दिखाई देती है। राम मंदिर निर्माण का सफर के साथ किताब का अंत होता है।'


अगर आप आरएसएस और राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं तो पुण्य प्रसून जी की "RSS Sangh Ka Safar :100 warsh"(आरएसएस संघ का सफर : 100 वर्ष) पढ़ना चाहिए।

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