शनिवार, 30 जनवरी 2021

गांधी से महात्मा गांधी का सफर

 

महात्मा गाँधी की पुण्य तिथि पर शहीद दिवस हर वर्ष 30 जनवरी को मनाया जाता है। 30 जनवरी, 1948 का ही वह दिन था, जब शाम की प्रार्थना के दौरान सूर्यास्त के पहले महात्मा गाँधी पर हमला किया गया था। वे भारत के महान् स्वतंत्रता सेनानी थे और लाखों शहीदों के बीच में महान् देशभक्त के रूप में गिने जाते थे। भारत की आजादी, विकास और लोक कल्याण के लिये वे अपने पूरे जीवन भर कड़ा संघर्ष करते रहे। 30 जनवरी को नाथूराम गोड़से ने महात्मा गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, जिसके कारण यह दिन भारत सरकार द्वारा शहीद दिवस के रूप में घोषित किया गया है। तब से, महात्मा गाँधी को श्रद्धंजलि देने के लिये हर वर्ष 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाया जाता है। 30 जनवरी, 1948 देश के लिये सबसे दु:ख का दिन है, जो भारतीय इतिहास के लिये सबसे जहरीला दिन बन गया था। गांधी स्मृति वह जगह है, जहाँ शाम की प्रार्थना के दौरान बिरला हाऊस में 78 वर्ष की उम्र में महात्मा गाँधी की हत्या हुई थी।

"पाँच फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चोरा नामक स्थान पर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह से पुलिसकर्मियों की भिड़ंत हो गई थी।जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी थी जिसके कारण बाईस पुलिसकर्मी और तीन नागरिक मारे गए थे।हिंसा की इस घटना से व्यथित होकर गांधी जी ने अपने ‘असहयोग आंदोलन’ को रोक दिया था।पर उन्होंने अपनी माँगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष पर विराम नहीं लगाया; उसमें बड़ा संशोधन कर दिया।



गांधी ने अपनी रणनीति पर विचार पुनर्विचार किया। दो साल बाद 12 मार्च 1930 को ‘नमक सत्याग्रह’ के सिलसिले में जब अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से चौबीस दिनों के लिए 378 किलो मीटर दूर दांडी तक यात्रा निकाली तो उसमें सिर्फ़ अस्सी अहिंसक सत्याग्रही थे। एक-एक व्यक्ति का चयन गांधी ने स्वयं किया था और उसमें समूचे भारत का प्रतिनिधित्व था।ज़्यादातर सत्याग्रहियों की उम्र सोलह से पच्चीस वर्ष के बीच थी। छह अप्रैल 1930 को जब गांधी ने दांडी पहुँचकर नमक का कानून तोड़ा तो अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई थी।"

जब महात्मा गाँधी चम्पारण पहुँचे तो उन्होंने पाया कि वहां हजारों भूमिहीन एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील की फसलों की खेती करने के लिये बाध्य हो रहे थे. नील की खेती करने वाले किसानों पर अंग्रेज़ों के अलावा कुछ बगान मालिक भी जुल्म ढा रहे थे. चम्पारण के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था जिसके अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था जिसे  'तिनकठिया पद्धति' कहते थे.

यहीं से मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के तौर पर पहचान मिला तथा चम्पारण सत्याग्रह को भारत की आज़ादी के इतिहास का मील का पत्थर माना जाने लगा. कहा तो ये भी जाता है कि इसी आंदोलन से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा" नाम से संबोधित किया था और तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे थे.



जब महात्मा गाँधी 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुँचे थे तब पूरे महात्मा गांधी, चम्पारण, बिहार में किसानों के भीतर आत्म-विश्वास का जबर्दस्त संचार हुआ था जिसके कारण गांधीजी को धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने के प्रयास की नोटिस भेजी गई थी. लेकिन इसका कुछ भी असर उन पर नहीं पड़ा बल्कि उनका कद और ख्याति बढ़ती ही चली गई. अब मार्च 1918 आते-आते 'चंपारण एगरेरियन बिल' पर गवर्नर-जनरल के हस्ताक्षर के साथ तीनकठिया समेत कृषि संबंधी अन्य अवैध कानून भी समाप्त हो गए थे.  मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा 1917 में संचालित यह सत्याग्रह भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी. गांधीजी की अगुवाई वाले इस आंदोलन से न सिर्फ नील के किसानों की समस्याओं का फौरन हल हुआ था, बल्कि सत्य, अहिंसा और प्रेम के संदेश ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारतीयों को एकजुट भी किया था.

बुधवार, 13 जनवरी 2021

युवाओं के प्रेरणा स्रोत रहे हैं स्वामी विवेकानंद

 

स्वामी विवेकानंद जी की जन्मतिथि को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में हमारे देश में मनाया जाता है। वो युवाओं के लिए सच्चे आदर्श हैं। वे कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं और आगे भी रहेंगे। 1984 में भारत सरकार ने स्वामी विवेकानंद जयंती पर इसे मनाने की घोषणा की थी। प्रेरणा के अपार स्रोत रहे और आज भी युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद की कही एक-एक बात ऊर्जा से भर देती है। अपने छोटे से जीवन में ही उन्होंने पूरे दुनिया पर भारत और हिंदुत्व की गहरी छाप छोड़ी। शिकागो में दिया गया भाषण आज भी गर्व से भर देता है। विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था. उन्होंने शिकागो में अपने भाषण से सभी आश्चर्यचकित किया था. इसके बाद अमेरिका और यूरोप में भारतीय वेदांत दर्शन के प्रति दिलचस्पी जगने लगी थी.
शिकागो सम्मेलन में उन्हें 02 मिनट का ही समय दिया गया था लेकिन जब उन्होंने भाषण की शुरुआत "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" से की, तो इस संबोधन ने सबका दिल जीत लिया. इसके बाद उनके संबोधन के दौरान ना केवल खूब तालियां बजीं बल्कि उनकी बातों को बहुत ध्यान से सुना गया.इनके विचार आज भी जोश भर देता है।



'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये।'

'उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो।'

'जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएं अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता  है।'

12 जनवरी, 1863 एक बंगाली परिवार में उनका जन्म हुआ, नाम रखा गया नरेंद्रनाथ दत्ता। वो अपनी माँ की सात संतानों में से एक थे। बचपन से ही, नरेंद्रनाथ बहुत ही तीव्र बुद्धि के धनी थे, पढ़ाई लिखाई में हमेशा अच्छे थे। अपने शुरूआती जीवन में वो अंग्रेज़ी भाषा पढने लिखने से परहेज़ करते थे, ऐसा इसलिए क्यूंकि उनको लगता था कि अंग्रेज़ी ब्रिटिश वासियों की भाषा है। लेकिन बाद में  उनको यह भाषा सीखनी पड़ी क्यूंकि यह उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। वो अन्य दुसरे विषय जैसे खेलकूद, संगीत,  कुश्ती इत्यादि में भी काफ़ी आनंद लिया करते थे।उन्होंने कलकत्ता के एक कॉलेज से दार्शनिक शास्त्र में स्नात्कोत्तर कि उपाधि प्राप्त की, उसके बाद आगे चलकर वो दार्शनिक शास्त्र के बड़े शास्त्री बने। उनकी शिक्षा का धर्म, श्रद्धा, विद्या, अध्यात्म और मानवतावाद पर अधिक ज़ोर होता था। वो अपने गुरु, रामकृष्ण परमहंसजी के ज्ञान को आगे फ़ैलाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े।आगे चलकर, नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद के नाम से पहचाने जाने लगे। उनके बहुत के कामों के अलावा ब्रम्हो समाज और रामकृष्ण मिशन के सामाजिक कार्यों को लेकर, विभिन्न धर्मों में मैत्री भाव, दुःख और दरिद्रता को दूर करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था

स्वामी विवेकानंद का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का युवा जागरूक और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित हो, तो वह देश किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। युवाओं को सफलता के लिये समर्पण भाव को बढ़ाना होगा तथा भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार रहना होगा, विवेकानंद युवाओं को आध्यात्मिक बल के साथ-साथ शारीरिक बल में वृद्धि करने के लिये भी प्रेरित करते हैं।

सोमवार, 11 जनवरी 2021

जननी है वो

 एक औरत है वो

सहनशील है वो 

क्षमाशील है वो

जननी   है   वो

भगिनी  है  वो

हर पल एक नई

भूमिका अपनाती है वो

पूज्यनीय  नारी   है वो



जीवन के हर मोड़ पर साथ देती

आदर्श  पत्नी है वो

शक्ति है वो

प्रेरणा है वो

सृष्टि के रचनाकार है वो

क्योंकि खुद में ही सम्पूर्ण

नारी है वो।

रविवार, 10 जनवरी 2021

नारी हूँ मैं

 अबला नहीं

नारी हूँ मैं,

दुर्गा का स्वरूप हूँ मैं

ममता की छांव हूँ मैं

मां-बाप की शान हूँ मैं

बेटी हूँ मैं

पापा की प्यारी हूँ मैं

माता की दुलारी हूँ मैं

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।


फिर क्यों जन्म से पहले

मार दी जाती हूं मैं?

मां, बहन, बेटी और पत्नी भी हूँ मैं

फिर क्यों संसार में

बलात्कारियों के सर चढ़ी जाती हूँ मैं?

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।


जननी हूँ मैं

न जाने कितने युगों से पीड़ित हूँ मैं

फिर भी जीवित हूँ मैं

क्योंकि जीवन का आधार हूँ मैं?

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।

      -@अरुणेश✍️



शनिवार, 9 जनवरी 2021

जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917

 

घुमन्तू पत्रकार एवं लेखक पुष्यमित्र ने ‘जब नील का दाग मिटा: चम्पारण 1917’ नामक किताब में चम्पारण से कलकत्ता तक फैले नील किसानों की बेहद मार्मिक दास्तान और उसके संघर्षपूर्ण इतिहास को बताने की कोशिश की है।इसमें यह भी बताने की कोशिश की है किस तरह मोहनदास करमचन्द गाँधी को महात्मा गाँधी बनाने में चम्पारण के सत्याग्रह की अहम भूमिका थी।
पुष्यमित्र ने नील से किसानों की समस्याओं और उनके बीच से उपजे गाँधी के स्वतंत्रता आंदोलन की हकीकत को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।


मैं अदालत में गया तो कलक्टर ने मुझे आवेदन देने को कहा। मैंने कहा कि कृपया खुद निरीक्षण कर लीजिए, बात गलत साबित हो तो मुझे सजा दीजिएगा। मगर वे राजी नहीं हुए। मैंने कहा कि एक बार आवेदन देने की सजा मैं 21 दिनों तक जेल में भुगत चुका हूं, अब दूसरा आवेदन देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। इसके बावजूद वे नहीं पसीजे।’

‘चम्पारण का तो यही इतिहास है।’

मोहनदास करमचन्द गाँधी नीलहे अंग्रेज़ों के अकल्पनीय अत्याचारों से पीड़ित चम्पारण के किसानों का दुख-दर्द राजकुमार शुक्ल से सुनकर उनकी मदद करने के इरादे से वहाँ गए थे। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, महसूस किया वह शोषण और पराधीनता की पराकाष्ठा थी, जबकि इसके प्रतिकार में उन्होंने जो कदम उठाया वह अधिकार प्राप्ति के लिए किए जानेवाले पारम्परिक संघर्ष से आगे बढ़कर ‘सत्याग्रह’ के रुप में सामने आया। अहिंसा उसकी बुनियाद थी। सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह का प्रयोग गाँधी हालांकि दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन भारत में इसका पहला प्रयोग उन्होंने चम्पारण में ही किया। यह सफल भी रहा। चम्पारण के किसानों को नील की जबरिया खेती से मुक्ति मिल गई, लेकिन यह कोई आसान लड़ाई नहीं थी। नीलहों के अत्याचार से किसानों की मुक्ति के साथ-साथ स्वराज प्राप्ति की दिशा में एक नए प्रस्थान की शुरुआत भी गाँधी ने यहीं से की।

इस किताब में महात्मा गांधी को चंपारण लाने में  राजकुमार शुक्ला की किस तरह की भूमिका रही है उसको बताने की कोशिश की है।किस प्रकार से शुक्ल के मित्र वकील ब्रजकिशोर प्रसाद के प्रयास से गाँधी जी तक पहुंचने में भी उन्हें महीनों पापड़ बेलने पड़े थे।कैसे गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक आदि नेताओं ने सब कुछ जानते हुए भी राजकुमार शुक्ल की बातों को अनदेखा किया था।इस किताब में अनेक ऐसे लोगों के चेहरे दिखलाई पड़ते हैं, जिनका शायद ही कही जिक्र मिलेगा वो मूल रूप से स्वतंत्रता सेनानी थे।
नील की खेती और गांधी को समझने केलिए यह किताब बेस्ट है।
यह किताब सीधी एवं सरल भाषा में लिखी गई है।हम सबको पढ़ना चाहिए।खासकर जो चंपारण, चंपारण सत्याग्रह और गांधी को समझना चाहते हैं उन्हें बिल्कुल पढ़ना चाहिए।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

बोलना ही है : रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘बोलना ही है’ एक ऐसी किताब है, जिसे हम सबको मतलब सभी भारतीय को पढ़ना चाहिए ।आप उनकी सोच से असहमत हो सकते हैं, उनकी शैली आपको पसंद नहीं आ सकती है, परंतु  उनकी किताब में लिखा हुआ एक-एक शब्द देश की ज़्यादतर आबादी की सोच, बोलने, बात करने और दूसरों को देखने के नज़रिये की बिल्कुल सटीक कहानी बयान करता है।किताब की भाषा बिल्कुल सरल और साधारण है।इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि पाठक को बांधे रखती है।



किताब की भूमिका ‘लिंचिंग’ की घटनाओं से होती है और नागरिक पत्रकारिता पर समाप्त होती है. पहले अध्याय ‘बोलना’ में लोकतंत्र में नागरिक के लिए बोलना कितना और क्यों जरुरी है.बोलने को लेकर नागरिक के मन में आने वाले भय के बारे में लिखते हुए वो कहते हैं-
बोलना किसी भी दौर में आसान नहीं रहा है. बोलने के लिए आपको अकेलेपन के इम्तहान से गुजरना पड़ता है. आप खुद से पूछिए कि क्या आप अकेले रह सकते हैंएक सवाल यह भी कीजिए कि क्या आप चुप रहकर चैन की नींद सो सकते हैंबोलना मुश्किल नहीं है मुश्किल है बोलने से पहले डर के सुरंग से गुजरना. यह डर हमेशा सत्ता का नहीं होता है. गलती कर जाने का भी डर होता है. बाद की प्रतिक्रियाओं का भय सताता है. डर से मुकाबला तो बोलने के बाद शुरू होता है. तब पता चलता है उसका सामना करने की हिम्मत है या नहींजब दोस्तों के फ़ोन आते हैं कि सतर्क रहा करोचुप रहा करोसमय ख़राब है.”

"9 दिसंबर 2017 को गुजरात चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के दिए गए भाषण में फेक न्यूज़ का जिक्र इस किताब में किया गया है किस प्रकार से मणिशंकर अय्यर के घर पर हुई रात्रि भोज को एक गुप्त मीटिंग का नाम देकर पाकिस्तान का गुजरात चुनाव में हस्तक्षेप की बात अपने भाषण में मोदीजी करते हैं, जिसका उद्देश्य गुजरात चुनाव के असली मुद्दों से ध्यान भटकना  है, जब फेक न्यूज़ की चर्चा या जानकारी किसी बड़े पद के व्यक्ति के द्वारा की जाती है तो जनता इसको इसी प्रकार से मानती है कि कुछ तो है। यही बात है जो फेक न्यूज़ के लिए  ईंधन का काम करती है, फेक न्यूज़ ने पहले खबरों और पत्रकारिता को फेंक किया और अब वह जनता को फेक रूप तैयार कर रहा है। फेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है। आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है। फेक न्यूज़ का एक बड़ा काम है नफरत फैलाना, फेक न्यूज़ के खतरनाक खेल में बड़े अखबार और टीवी चैनल शामिल हैं, लेकिन भारत में अब कुछ वेबसाइटों ने फेक न्यूज़ से लोहा लेना शुरू कर दिया है। लेकिन यह सब बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है इसकी पहुंच मुख्यधारा के मीडिया के फैलाए फेक न्यूज़ की तुलना में बहुत सीमित है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कैबिनेट मिनिस्टर का विरोध या असहमति  दर्ज करने पर कितने ही पत्रकारों आम नागरिकों पर पुलिस केस और मानहानि केस दर्ज भारत में हो रहे हैं। इन्हीं सब तरीकों से नागरिक अधिकारों को कम करने या उनको खत्म करने की सुनियोजित तरीके से योजना सरकारों के द्वारा चल रही है।"
इस किताब में धर्म के नाम पर टेलीविज़न पर चलाये जाने वाले पाखंड पर कटाक्ष किया है।पुराने फेसबुक पोस्ट का भी उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने अलग अलग मौकों पर लिखा था।
"भीड़ और प्रोपेगेंडा का नतीजा बताया गया कि किस प्रकार से जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने  भीड़ को और प्रोपेगंडा को इस प्रकार से तैयार कर दिया था"
इस किताब के ज़रिये रवीश ने देश में मीडिया के रोल और हर दूसरे नागरिक को शक के निगाह से देखे जाने का एक स्व, जो हम सबने अपने अंदर पाल लिया है को आसपास की घटनाओं का उल्लेख कर समझाने की कोशिश की है।
कैसे मीडिया से लेकर धर्म और धर्म के ठेकेदार  व्यापार तंत्र का हिस्सा बन गए हैं, इस सिलसिले पर नज़र डालने के साथ ही, हमारे सोचने और बोलने तक को सीमित करने की साज़िश की बात भी कही गई है।

मुझे लगता है "बोलना ही है" सबको पढ़ना चाहिए।चाहे वो रवीश कुमार के विचारधारा से सहमति रखते हो या नहीं।
खासकर अगर पत्रकारिता के छात्र हैं या पत्रकारिता से तालुकात रखते हैं तो उन्हें जरूर पढ़ता चाहिए।

आरएसएस संघ का सफर : 100 वर्ष

 वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपनी नई किताब  ‘आरएसएस- संघ का सफर: 100 वर्ष ‘ में संघ की विचारधारा, उसके संविधान, सफर, चुनौतियों, हिंदुत्व के प्रश्न, संघ पर लगे प्रतिबंध, संगठन के भीतर के अंतर्विरोधों, राजनीतिक प्रश्न और संघ के बदलते सरोकारों को बताने की कोशिश की है।



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) 1925 में अपने स्थापना वर्ष से ही लगातार कई गंभीर सवालों के घेरे में रहा है. जैसे महात्मा गांधी की मृत्यु में संघ की क्या भूमिका थी, देश को हिंदू अतिवाद के सांप्रदायिक विमर्श में घसीटना और लगातार हिंदू राष्ट्र की बात कर समाज के एक संप्रदाय को नीचा दिखाने की कोशिश. इन्हीं तमाम सवालों के जरिए RSS को हमेशा कटघरे के खड़ा किया जाता रहा है।

"प्रसून जी यही सवाल उठाते हैं कि संघ जिस रूप में अभी खुद को देख रहा है जहां सत्ता के सामने उसे भी नतमस्तक होना पड़ गया है तो ऐसे में क्या भाजपा की सियासत सिमटने की स्थिति में संघ फिर से जनसंघ और उसके बाद भाजपा जैसा प्रयोग करेगा? ये सोचने वाली बात है. न सिर्फ संघ पर दृष्टि रखने वाले लोगों को बल्कि संगठन के भीतर के लोगों को भी. और इस क्रम में कुछ उलझनों को जरूर प्रसून की किताब सुलझाने का काम कर सकती है."

'किताब का पहला अध्याय है " संघ की विचारधारा : सत्ता" से शुरू होती है। शुरुआत में ही  अटलबिहारी वाजपेयी के इस प्रकार के एक कथन से होता है कि विचारधारा पर अटल रह कर राजनीति नहीं की जा सकती है।


इसी में आगे संघ के गुरु गोलवलकर साफ शब्दों में यह कह कर फारिग हो जाते हैं कि, बिल्कुल की जा सकती है और दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं।

गोलवलकर की इतनी साफगोई के बाद भी यहां पूरा विषय असमाधित ही रह जाता है। वाजपेयी अंत तक गुरु जी से दिशा-निर्देश मांगते रह जाते हैं और गुरु जी इतना कह कर ही शांत हो जाते हैं कि हमें जो कहना था, कह दिया — समझदार को इशारा ही काफी है — और आगे की गाड़ी इसी ऊहा-पोह में अपनी गति से चलने के लिए छोड़ दी जाती है।


हम यहां यह बुनियादी सवाल उठाना चाहते हैं कि किसी भी राजनीतिक संगठन में विचारधारा और राजनीति को लेकर आखिर यह स्थिति पैदा कैसे होती है ? अक्सर तमाम संगठनों में यह बात किसी न किसी मौके पर सिर उठाती हुई दिखाई देती है। राम मंदिर निर्माण का सफर के साथ किताब का अंत होता है।'


अगर आप आरएसएस और राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं तो पुण्य प्रसून जी की "RSS Sangh Ka Safar :100 warsh"(आरएसएस संघ का सफर : 100 वर्ष) पढ़ना चाहिए।

बुधवार, 6 जनवरी 2021

नए साल में टीकाकरण सभी केलिए राहत भरी खबर

 नए साल के शुरू होते होते शुभ संकेत मिलना शुरू होगया है।अब कोरोना टीका लगाएं जाने की खबर आने के बाद पूरा देश राहत की सांस लेरहा है।स्वास्थ्य मंत्री ने कहा है कि प्रथम चरण में स्वास्थ्य कर्मियों और उनके साथ काम करने वाले तीन करोड़ कर्मियों को मुफ्त टीका लगाया जाएगा।

इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  ने भी घोषणा कर दी है कि दिल्ली के सभी नागरिकों को मुफ्त टीका लगाया जाएगा।
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि बिहार के सभी लोगों को मुफ्त कोरोना के टीके लगाए जाएंगे, तब उनकी यह कह कर आलोचना की गई थी कि देश के बाकी लोगों को इसका लाभ क्यों नहीं मिलना चाहिए।

तब उस बयान को राजनीतिक और चुनावी कह दिया गया था। फिर स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि पूरे देश को मुफ्त टीका उपलब्ध कराया जाएगा। सरकार ने अपने उस वादे को निभाया है। कोरोना का टीका तैयार करने में काफी ख़र्च आई है, इसलिए इसकी कीमत भी ज्यादाहोगी ही। जिन देशों में कोरोना के टीके तैयार किए गए हैं, वहां उन्हें लगवाना ज्यादा खर्चीला काम माना जा रहा है।



इसलिए भारत में भी आशंका जताई जा रही थी कि टीका उपलब्ध होने के बाद भी उसकी पहुंच शायद आम लोगों तक आसानी से न हो सके। जब तक इसका टीका सभी तक उपलब्ध न हो जाए, तब तक कोरोना संक्रमण रोकने को लेकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। अब तो वह चिंता दूर हो गई है।भारत सरकार केलिए बहुत बड़ा चुनौती होगा पूरे देशवासियों तक टीका पहुँचाना।


भारत में तैयार टीके की बात करें तो इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि उसे ब्रिटेन आदि देशों में तैयार टीकों की तरह बहुत कम तापमान में सुरक्षित रखने की जरूरत नहीं है। उसे घर के सामान्य रेफ्रिजरेटर में रखा जा सकता है। इसलिए जो सबसे बड़ी चुनौती मानी जा रही थी कि तापमान नियंत्रित करने के लिए संसाधन जुटाना आसान नहीं होगा, वह भी अब कोई मुश्किल काम नहीं रह गया है।


दूर-दराज के गांवों, पहाड़ी क्षेत्रों,  गरम इलाकों तक भी इसे आसानी से पहुंचाया जा सकता है। विशाल आबादी में सभी तक पहुंच सुनिश्चित कराना एक चुनौतीपूर्ण काम जरूर है, मगर सरकार ने इसकी बहुत व्यावहारिक रूपरेखा तैयार कर ली है, इसलिए इसे कठिन नहीं माना जा सकता।



सोमवार, 4 जनवरी 2021

अरुणेश की डायरी-2

 कभी तो मुझे समझा करो तुम।तुम तो कहा करती थी कि कुछ भी हो जायेगा मैं कभी नहीं भूलूंगी।मुझे मालूम है तू भूल नहीं सकती।मेरे बिना तुम पर क्या गुजरती है ये सिर्फ मैं समझ सकता हूँ? फिर भी तुमसे विनती है तुम ऐसा कुछ न करना जिससे मेरी घबराहट और बढ़ जाए।बस इतना समझना जैसी हो जैसे रहोगी दिल से मेरी रहोगी। 

तुम्हारा दिया हुआ हर वो वादा याद है मुझे।जब तुम हमसे पूछा करती थी कि तुम हमको कभी छोड़ोगे नहीं न।सच में उस वक्त मेरी आँखें भर आती थी और मैं बिल्कुल लाचार बेसहारा जैसा बोल देता कभी नहीं।



मैं कैसे मान लूं तुम मुझे भूल जाओगी? एक बार जब तुमसे झगड़कर मोबाईल को स्वीच ऑफ़ कर दिया था तब तुम कितना बेचैन हो गयी थी।कितनी टेंसन में थी कहाँ कहाँ नहीं कॉल की थी तुम।गुस्से में तुम अपना सिर फोड़ ली थी,मोबाईल को दाँत से तोड़ दी थी।सच पूछो तो मैं खुद टेंसन में था पर मै भी विवश था।मैं तुम्हारी घुटन को समझ सकता था क्योंकि मेरे साथ भी कई बार गुजरा है।

एक बार तुमको मज़ाक में बोल दिऐ थे कि मैं अब बात नहीं करूंगा।तब क्या हाल बना ली थी रो रो कर तुम? वो मुझे आज भी याद है।दिसम्बर की वो रात तकरीबन एक बज रहा होगा।जब तुम्हारी दीदी का कॉल आया मेरे पास मैं बिल्कुल घबरा गया था और तुम्हारी सिसकती हुई आवाजें सुनाई दे रही थी।सिसक - सिसक कर बोल रही थी कि अगर तुम बात नहीं करोगे तो ये मेरी आख़री रात होगी।

हाँ माना कि मजबूरियां थी तुम्हारी,पर उतनी भी नहीं थी कि मुझे भुलने पर मजबूर हो जाओ चाहे कितनी भी कोशिश करलो नहीं भूल पाओगी।ये बात तुम खुद बोलती थी कि मैं चाह कर भी नहीं भूल सकती हूँ।

मुझे बार बार खोने का डर सताती रहती थी मुझे मालूम है मेरे लिखें शब्दों में खुद को पाने की कोशिश तुम्हें आज भी उत्साहित करती है।अगर कुछ न लिखूं तो खुद ही मन ही मन कोसती भी थी और शिकायत भी करती थी।


अब तो कई महीनों गुजरने को आए पता नहीं किस हाल में होगी तुम।जिद्द तो हम दोंनो की थी।दोनों ने दिल को बहुत समझाया था कि अब दोनों भूल जाएं।पर ऐसा हुआ नहीं।


आज तुम अपना दिया हुआ वादा तोड़ रही हो मैं फिर वैसे ही लाचार बेसहारा बैठा हूँ।हर वो वादा याद आ रही है जो तुम मुझसे हर वक्त किया करती थी।मुझे मालूम है तुम भी विवश हो हालांकि तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है।बस खुश रहो तुम नई जिंदगी की शुरुआत कर रही हो उसके लिए बधाई।