शनिवार, 9 जनवरी 2021

जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917

 

घुमन्तू पत्रकार एवं लेखक पुष्यमित्र ने ‘जब नील का दाग मिटा: चम्पारण 1917’ नामक किताब में चम्पारण से कलकत्ता तक फैले नील किसानों की बेहद मार्मिक दास्तान और उसके संघर्षपूर्ण इतिहास को बताने की कोशिश की है।इसमें यह भी बताने की कोशिश की है किस तरह मोहनदास करमचन्द गाँधी को महात्मा गाँधी बनाने में चम्पारण के सत्याग्रह की अहम भूमिका थी।
पुष्यमित्र ने नील से किसानों की समस्याओं और उनके बीच से उपजे गाँधी के स्वतंत्रता आंदोलन की हकीकत को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।


मैं अदालत में गया तो कलक्टर ने मुझे आवेदन देने को कहा। मैंने कहा कि कृपया खुद निरीक्षण कर लीजिए, बात गलत साबित हो तो मुझे सजा दीजिएगा। मगर वे राजी नहीं हुए। मैंने कहा कि एक बार आवेदन देने की सजा मैं 21 दिनों तक जेल में भुगत चुका हूं, अब दूसरा आवेदन देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। इसके बावजूद वे नहीं पसीजे।’

‘चम्पारण का तो यही इतिहास है।’

मोहनदास करमचन्द गाँधी नीलहे अंग्रेज़ों के अकल्पनीय अत्याचारों से पीड़ित चम्पारण के किसानों का दुख-दर्द राजकुमार शुक्ल से सुनकर उनकी मदद करने के इरादे से वहाँ गए थे। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, महसूस किया वह शोषण और पराधीनता की पराकाष्ठा थी, जबकि इसके प्रतिकार में उन्होंने जो कदम उठाया वह अधिकार प्राप्ति के लिए किए जानेवाले पारम्परिक संघर्ष से आगे बढ़कर ‘सत्याग्रह’ के रुप में सामने आया। अहिंसा उसकी बुनियाद थी। सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह का प्रयोग गाँधी हालांकि दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन भारत में इसका पहला प्रयोग उन्होंने चम्पारण में ही किया। यह सफल भी रहा। चम्पारण के किसानों को नील की जबरिया खेती से मुक्ति मिल गई, लेकिन यह कोई आसान लड़ाई नहीं थी। नीलहों के अत्याचार से किसानों की मुक्ति के साथ-साथ स्वराज प्राप्ति की दिशा में एक नए प्रस्थान की शुरुआत भी गाँधी ने यहीं से की।

इस किताब में महात्मा गांधी को चंपारण लाने में  राजकुमार शुक्ला की किस तरह की भूमिका रही है उसको बताने की कोशिश की है।किस प्रकार से शुक्ल के मित्र वकील ब्रजकिशोर प्रसाद के प्रयास से गाँधी जी तक पहुंचने में भी उन्हें महीनों पापड़ बेलने पड़े थे।कैसे गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक आदि नेताओं ने सब कुछ जानते हुए भी राजकुमार शुक्ल की बातों को अनदेखा किया था।इस किताब में अनेक ऐसे लोगों के चेहरे दिखलाई पड़ते हैं, जिनका शायद ही कही जिक्र मिलेगा वो मूल रूप से स्वतंत्रता सेनानी थे।
नील की खेती और गांधी को समझने केलिए यह किताब बेस्ट है।
यह किताब सीधी एवं सरल भाषा में लिखी गई है।हम सबको पढ़ना चाहिए।खासकर जो चंपारण, चंपारण सत्याग्रह और गांधी को समझना चाहते हैं उन्हें बिल्कुल पढ़ना चाहिए।

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