शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

बोलना ही है : रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘बोलना ही है’ एक ऐसी किताब है, जिसे हम सबको मतलब सभी भारतीय को पढ़ना चाहिए ।आप उनकी सोच से असहमत हो सकते हैं, उनकी शैली आपको पसंद नहीं आ सकती है, परंतु  उनकी किताब में लिखा हुआ एक-एक शब्द देश की ज़्यादतर आबादी की सोच, बोलने, बात करने और दूसरों को देखने के नज़रिये की बिल्कुल सटीक कहानी बयान करता है।किताब की भाषा बिल्कुल सरल और साधारण है।इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि पाठक को बांधे रखती है।



किताब की भूमिका ‘लिंचिंग’ की घटनाओं से होती है और नागरिक पत्रकारिता पर समाप्त होती है. पहले अध्याय ‘बोलना’ में लोकतंत्र में नागरिक के लिए बोलना कितना और क्यों जरुरी है.बोलने को लेकर नागरिक के मन में आने वाले भय के बारे में लिखते हुए वो कहते हैं-
बोलना किसी भी दौर में आसान नहीं रहा है. बोलने के लिए आपको अकेलेपन के इम्तहान से गुजरना पड़ता है. आप खुद से पूछिए कि क्या आप अकेले रह सकते हैंएक सवाल यह भी कीजिए कि क्या आप चुप रहकर चैन की नींद सो सकते हैंबोलना मुश्किल नहीं है मुश्किल है बोलने से पहले डर के सुरंग से गुजरना. यह डर हमेशा सत्ता का नहीं होता है. गलती कर जाने का भी डर होता है. बाद की प्रतिक्रियाओं का भय सताता है. डर से मुकाबला तो बोलने के बाद शुरू होता है. तब पता चलता है उसका सामना करने की हिम्मत है या नहींजब दोस्तों के फ़ोन आते हैं कि सतर्क रहा करोचुप रहा करोसमय ख़राब है.”

"9 दिसंबर 2017 को गुजरात चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के दिए गए भाषण में फेक न्यूज़ का जिक्र इस किताब में किया गया है किस प्रकार से मणिशंकर अय्यर के घर पर हुई रात्रि भोज को एक गुप्त मीटिंग का नाम देकर पाकिस्तान का गुजरात चुनाव में हस्तक्षेप की बात अपने भाषण में मोदीजी करते हैं, जिसका उद्देश्य गुजरात चुनाव के असली मुद्दों से ध्यान भटकना  है, जब फेक न्यूज़ की चर्चा या जानकारी किसी बड़े पद के व्यक्ति के द्वारा की जाती है तो जनता इसको इसी प्रकार से मानती है कि कुछ तो है। यही बात है जो फेक न्यूज़ के लिए  ईंधन का काम करती है, फेक न्यूज़ ने पहले खबरों और पत्रकारिता को फेंक किया और अब वह जनता को फेक रूप तैयार कर रहा है। फेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है। आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है। फेक न्यूज़ का एक बड़ा काम है नफरत फैलाना, फेक न्यूज़ के खतरनाक खेल में बड़े अखबार और टीवी चैनल शामिल हैं, लेकिन भारत में अब कुछ वेबसाइटों ने फेक न्यूज़ से लोहा लेना शुरू कर दिया है। लेकिन यह सब बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है इसकी पहुंच मुख्यधारा के मीडिया के फैलाए फेक न्यूज़ की तुलना में बहुत सीमित है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कैबिनेट मिनिस्टर का विरोध या असहमति  दर्ज करने पर कितने ही पत्रकारों आम नागरिकों पर पुलिस केस और मानहानि केस दर्ज भारत में हो रहे हैं। इन्हीं सब तरीकों से नागरिक अधिकारों को कम करने या उनको खत्म करने की सुनियोजित तरीके से योजना सरकारों के द्वारा चल रही है।"
इस किताब में धर्म के नाम पर टेलीविज़न पर चलाये जाने वाले पाखंड पर कटाक्ष किया है।पुराने फेसबुक पोस्ट का भी उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने अलग अलग मौकों पर लिखा था।
"भीड़ और प्रोपेगेंडा का नतीजा बताया गया कि किस प्रकार से जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने  भीड़ को और प्रोपेगंडा को इस प्रकार से तैयार कर दिया था"
इस किताब के ज़रिये रवीश ने देश में मीडिया के रोल और हर दूसरे नागरिक को शक के निगाह से देखे जाने का एक स्व, जो हम सबने अपने अंदर पाल लिया है को आसपास की घटनाओं का उल्लेख कर समझाने की कोशिश की है।
कैसे मीडिया से लेकर धर्म और धर्म के ठेकेदार  व्यापार तंत्र का हिस्सा बन गए हैं, इस सिलसिले पर नज़र डालने के साथ ही, हमारे सोचने और बोलने तक को सीमित करने की साज़िश की बात भी कही गई है।

मुझे लगता है "बोलना ही है" सबको पढ़ना चाहिए।चाहे वो रवीश कुमार के विचारधारा से सहमति रखते हो या नहीं।
खासकर अगर पत्रकारिता के छात्र हैं या पत्रकारिता से तालुकात रखते हैं तो उन्हें जरूर पढ़ता चाहिए।

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