शनिवार, 18 सितंबर 2021

104 फीट ऊंचा 400 फीट परिधि वाला विश्व का सबसे ऊंचा स्तूप ,सरकारी उपेक्षा का शिकार

 

विश्व का सबसे ऊँचा स्तूप है केसरिया बौद्ध स्तूप :

केसरिया बौद्ध स्तूप की ऊंचाई आज 104 फीट है और इसकी परिधि लगभग 400 फीट है।
इसलिए इसे विश्व का सबसे ऊंचा स्तूप होने का गौरव प्राप्त है।इस बेहतरीन ढाँचा को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा साल 1998 में खोजा गया था।
बौद्ध स्तूप में लगी ईटें मौर्य कालीन है। सभी मूर्तियां विभिन्न मुद्राओं में है। 1861-62 में इस स्तूप के संबंध में कर्निघम ने लिखा हैं कि केसरिया का यह स्तूप 200 ईसा से 700 ईसा के मध्य बना है। चीनी यात्री फाहियान के अनुसार केसेरिया के देउरा स्थल पर भगवान बुद्ध अपने महापरिनिर्वाण के ठीक पहले वैशाली से कुशीनगर जाने वक्त एक रात का विश्राम किया था। तथा साथ आये वैशाली के भीक्षुओं को अपना भीक्षा पात्र प्रदान कर कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया था।

बौद्ध स्तूप की हालत दिन पर दिन ख़राब होते जा रहा है

दुनिया में भारत को पहचान दिलाने वाला बिहार के चंपारण के केसरिया बौद्ध स्तूप की हालत दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है।बौद्ध स्तूप धीरे-धीरे खंडहर में बदलते जा रहा है।लेकिन सरकार की ध्यान अब तक नहीं पड़ा।पिछले कई सालों से इस स्तूप को बनाने के लिए सरकार से मांग की जा रही है।लेकिन सिर्फ समय बदल जाता है स्तूप की हालत बद से बदत्तर होती जा रही है।

बौद्ध स्‍तूप का बाढ़ के पानी से घिरना हर साल की समस्‍या है। पिछले साल भी स्‍तूप के प्रांगण में बाढ़ का पानी आ गया था। पानी के दबाव के कारण स्तूप के एक भाग की चारदीवारी भी गिर गई थी।

फिलहाल इस बौद्ध स्तूप की काफी जर्जर हो चुकी है,स्तूप के चारों तरफ जलजमाव है।पानी के बीचों बीच दुनिया के सबसे ऊंचा बौद्ध स्तूप विकास की उम्मीद लगाए बैठा है लेकिन अब तक विकास नहीं हो पाया।

युवाओं ने ट्वीट पर ट्रेंड  गया

पिछले कुछ दिनों में बिहार की युवा शक्ति भी एक जुटता दिखाते हुए ट्विटर पर #save_kesariyabaudhstupa ट्रेंड कराया था।राजद ने भी अपने अधिकारिक ट्विटर हैन्डल से इसके समर्थन में ट्वीट किया था।हालाकिं इस मुहिम को केसरिया विधायक शालिनि मिश्रा के अलावा क्षेत्र के किसी अन्य नेता का सहयोग नहीं मिला।  पूर्वी चंपारण संसदीय क्षेत्र से सांसद पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह और  जिले के अन्य 11 विधायकों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली। भाजपा बिहार के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष और पश्चिमी चंपारण के सांसद संजय जायसवाल ने भी इसको लेकर कोई आवाज़ नहीं उठाया।

वर्तमान डीएम और केसरिया विधायक स्तूप के विकास के लिए प्रयासरत

जिले के वर्तमान डीएम शीर्षत कपिल अशोक ने
बौद्ध स्तूप के सौंदर्यीकरण को लेकर कदम उठाये है। स्तूप के आसपास पानी लगने की समस्या के निराकरण और स्तूप तक जाने वाले पथ का निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण का कार्य पूर्ण हो गया है।
शालिनि मिश्रा बिहार विधानसभा में बौद्ध स्तूप को लेकर अपनी आवाज़ भी उठाई थी लेकिन इसके बावजूद भी अब तक विकास नहीं हो पाया।


सोमवार, 26 जुलाई 2021

सोशल मीडिया : लघुकथा

 अरे चाचा ! आपके कलम में तो जादू है जादू। कविता, कहानी,शायरी ,चुटकुले सब- कुछ कितना सुंदर लिखते हैं।

आपको तो 'सोशल मीडिया' पर लिखना चाहिए ताकि  लाखों लोगों के पास आपकी लेखनी पहुँच सके।

दरअसल, पहली बार भतीजा रोहण शहर से अपने गांव चाचा से मिलने आया था।चाचा रमेश अपनी डायरी पलटते हुए रोहण से पूछा ये बताओ सोशल मीडिया क्या होता? 

चाचा सोशल मीडिया पर आप कोई भी बात विचार लिख सकते हैं ,पढ़ सकते हैं ,आप अपने पसन्द के दोस्तों को जोड़ सकते हैं,कविता, कहानी लिखकर डाल सकते हैं ताकि देश के अन्य लोग भी पढ़ सकेंगे।

बेटा रोहण अब ये कैसे लिखेंगे, कैसे डालेंगे ये सब मुझे समझ में नहीं आता है?

नहीं आता तो क्या हुआ मैं हूँ न ,मैं सिखाऊंगा ?, कुछ ही दिनों में रोहण ने चाचा को फेसबुक पर पोस्ट करना और ब्लॉग लिखना सीखा दिया।फिर रोहण ने चाचा के लिए सोशल साइट पर एकाउंट बना दिया।

अब हर रोज रमेश अपने ब्लॉग पर और फेसबुक पर कविता ,कहानी लिखता है।धीरे-धीरे लाखों लोग रमेश के वॉल पर आ गए। ढ़लती उम्र के इस पड़ाव पर चाचा रमेश को एक नई पहचान मिल गई।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

पडरौना से वाल्मीकिनगर की यात्रा

 


कोरोना महामारी के साथ लोगों की जिंदगी में आए बदलावों में वर्क फ्रॉम होम एक अहम हिस्सा है. वर्क फ्रॉम होम कोविड-19 से पहले भी मौजूद था, लेकिन महामारी के आने पर सोशल डिस्टैंसिंग की जरूरत की वजह से यह लोगों के लिए अनिवार्य हो गया. भारत में यह मार्च 2020 से ज्यादातर सरकारी और निजी कर्मचारी अपने दफ्तर का काम घर से ही कर रहे हैं. शुरुआत में, वर्क फ्रॉम होम को ज्यादातर लोगों ने पसंद किया.लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया वर्क फ्रॉम होम सर दर्द बनता गया. क्योंकि जब हम काम नहीं कर रहे होते हैं तो घर पर समय व्यतीत करने में कभी परेशानी नहीं होती है. लेकिन जब हम काम घर से कर रहे होते हैं तो घर पर रहना परेशानी का सबब बनते जाता है. ऐसे में काम से जब भी छुट्टी मिलती है तो हम सीधे कहीं न कहीं घूमने को सोचते हैं.


हम जहाँ रहते हैं वहां से घूमने के लिए कुशीनगर जा सकते हैं. जो मेरे यहाँ से लगभग 25 km की दूरी पर है लेकिन कोरोनाकाल में सब कुछ बंद होने की वजह से वहां जाना नामुमकिन है. लेकिन मेरे यहाँ से दूरी कम होने के कारण  बिहार जाना भी ज्यादा आसान है. पडरौना से वाल्मीकि नगर जाने के लिए दो रास्ते हैं. एक तरफ से 65 km तो दूसरा 95 km. हम दोनों रास्ते से जा सकते हैं लेकिन बारिश के मौसम होने के वजह से सड़क जर्जर हो चुकी है इसलिए मैं फिलहाल 95km वाला मार्ग को चुनता हूँ.वाल्मीकि नगर जाने में तकरीबन 2 घण्टे लगते हैं.सड़क कहीं ज्यादा खराब है तो कहीं कम.अभी बारिश के समय में कहीं कहीं सड़क के ऊपर से पानी का बहाव देखने को मिलता है.अब हम बगहा पहुँचते हैं,तो देखते हैं कि बहुत जगह सड़क के ऊपर से पानी बहने लगता है.देख कर डर भी लगता है।मन ही मन सोचने लगता हूँ.क्या इस समय वाल्मीकि नगर जाना सही था या नहीं? क्या हमें यही से लौट जाना चाहिए? 

वहां से थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं तो एक रेलवे स्टेशन आता है 'वाल्मीकि नगर रोड'. वहां से लगभग 6-7km तक सिंगल मेन रोड था जहाँ से दूसरी गाड़ी को साइड देना भी मुश्किल ही लग रहा था क्योंकि दोनों तरफ पानी ही पानी नजर आ रहा था. फिर मन ही मन सोचता हूँ कि अगर और आगे जाऊंगा तो कहीं और ख़राब दौर से गुजरना न पड़े।हालांकि मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाता हूँ. थोड़ी दूर जाने के बाद पता चलता है कि आगे सड़क काफी अच्छी है और दोनों तरफ जंगल.साथ ही तराई का इलाका. प्रकृति का सुंदर दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो गया.कुछ दूर चलने के बाद वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से संबंधित सूचना बोर्ड दिखायी देने लगे थे।जंगली जानवरों से संबंधित सूचनाएं मिलने लगी थीं।


वाल्मीकि नगर :


 वाल्मीकि राष्ट्रीय उद्यान पश्चिमी चंपारण में शिवालिक पर्वत श्रेणी के बाहरी सीमा में स्थित है।यह राष्ट्रीय उद्यान मुख्य रूप से लुप्तप्राय प्राणियों का आवास है जैसे की चीता। यह अभयारण्य पूरी तरह से हरियाली से आच्छादित है।

900 गज में फैला वाल्मीकि राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना वर्ष 1990 में हुई थी। यह पार्क उत्तर में नेपाल के रॉयल चितवन नेशनल पार्क और पश्चिम में हिमालय पर्वत की गंडक नदी से घिरा हुआ है।यहां पर आप बाघ, स्‍लॉथ बीयर, भेडिए, हिरण, सीरो, चीते, अजगर, पीफोल, चीतल, सांभर, नील गाय, हाइना, भारतीय सीवेट, जंगली बिल्लियां, हॉग डीयर, जंगली कुत्ते, एक सींग वाले राइनोसिरोस तथा भारतीय भैंसे कभी कभार चितवन से चलकर वाल्‍मीकि नगर में आ जाते हैं। इस उद्यान में आप चीतल, काला हिरण, फिशिंग कैट्स, तेंदुए आदि भी देख सकते हैं।


हालांकि कोरोना के वजह से जंगल तो बंद है।अंदर घूमने की अनुमति नहीं मिलती है।फिर यहां से लगभग ढाई किलोमीटर पैदल चलने के बाद जटाशंकर मंदिर पहुँचते हैं,वहां घूमने के बाद हम वापस चले जाते हैं।क्योंकि गर्मी बहुत ज्यादा थी और साथ में छोटी बच्ची भी थी जो रोने लगती  है।तब हम सभी वही पर खाना खाते हैं और वापस चले आते हैं।खाना घर से ही लाये थे क्योंकि कोरोना के वजह से बाहर का खाना खाना सुरक्षित नहीं है।हम सभी कोरोना गाइडलाइंस को फॉलो करते हुए घूम रहे थे लेकिन यहां हमें कोई नहीं मिला जो फॉलो कर रहे हों सिर्फ हमारे सिवा।



वाल्मीकि नगर टूरिज्म के हिसाब से बहुत अच्छा जगह है. लेकिन उतना विकास नहीं हो सका है जितना होना चाहिए था.इसे बिहार का कश्मीर भी कहा जाता है.इस समय नदी में पानी बहुत ज्यादा थी,पानी का बहाव ज्यादा तेज थी. नदी के उस पार नेपाल दिख रही थी.रास्ता भी दिख रही थी लेकिन रास्ता बंद होने की वजह से वहां नहीं जा सका.

शुक्रवार, 25 जून 2021

आपातकाल का इतिहास

 

25 जून 1975, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इस दिन को देश के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन की संज्ञा दी जाती है. 46 साल पहले आज के ही दिन देश के लोगों ने रेडियो पर एक ऐलान सुना और पूरे देश में खबर फैल गई कि सारे भारत में अब आपातकाल की घोषणा कर दी गई है. 46 साल के बाद भले ही देश के लोकतंत्र की एक गरिमामयी तस्वीर सारी दुनिया में प्रशस्त हो रही हो, लेकिन आज भी अतीत में 25 जून का दिन डेमॉक्रेसी के एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है. 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के बीच देश में 21 महीने तक आपातकाल लगाया गया. तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी. 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हो गया था. अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना था, 'भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है.'

अभिव्यक्ति का अधिकार तो छिना ही जीवन का अधिकार तक गया
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे. अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था. 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था. जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था. जेलों में जगह नहीं बची थी. आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई थीं. प्रेस पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी. हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया गया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था. सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी. यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई.

न्यायपालिका से टकराव बना आपातकाल की पृष्ठभूमि
लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था. यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना था. आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की. एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने सात बनाम छह जजों के बहुमत से से सुनाए गए फैसले में यह कहा था कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है.

रायबरेली चुनाव निरस्त होने से खफा हो गई थीं इंदिरा गांधी
1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को अभूतपूर्व जीत दिलाई थी और खुद भी बड़े अंतर से जीती थीं. खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने 1971 में अदालत का दरवाजा खटखटाया था. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है. मामले की सुनवाई हुई और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया गया. इस फैसले से आक्रोशित होकर ही इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का फैसला किया. इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गई थीं कि अगले दिन ही उन्होंने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया.

आपातकाल में हर कदम पर संजय के साथ थीं मेनका
इंदिरा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे दिवंगत आरके धवन ने कहा था कि सोनिया और राजीव गांधी के मन में आपातकाल को लेकर किसी तरह का संदेह या पछतावा नहीं था. और तो और, मेनका गांधी को आपातकाल से जुड़ी सारी बातें पता थीं और वह हर कदम पर पति संजय गांधी के साथ थीं. वह मासूम या अनजान होने का दावा नहीं कर सकतीं. दिवंगत आरके धवन ने यह खुलासा एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में किया था. धवन ने बताया था कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम एसएस राय ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी. आपातकाल की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी. धवन ने बताया था कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी. वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे. धवन ने यह भी बताया था कि किस तरह आपातकाल के दौरान मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर उन्हें निर्देश दिया गया था कि आरएसएस के उन सदस्यों और विपक्ष के नेताओं की लिस्ट तैयार कर ली जाए, जिन्हें अरेस्ट किया जाना है. इसी तरह की तैयारियां दिल्ली में भी की गई थीं.

पहले इस्तीफा देने को तैयार थीं इंदिरा
धवन ने कहा था कि आपातकाल इंदिरा के राजनीतिक करियर को बचाने के लिए नहीं लागू किया गया था, बल्कि वह तो खुद ही इस्तीफा देने को तैयार थीं. जब इंदिरा ने जून 1975 में अपना चुनाव रद्द किए जाने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश सुना था, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफे की थी और उन्होंने अपना त्यागपत्र लिखवाया था. उन्होंने कहा था कि वह त्यागपत्र टाइप किया गया लेकिन उस पर हस्ताक्षर कभी नहीं किए गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी उनसे मिलने आए और सबने जोर दिया कि उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए



मंगलवार, 15 जून 2021

चिराग के खिलाफ हुए 5 सांसद

 

लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के छह लोकसभा सदस्यों में से पांच ने, दल के मुखिया चिराग पासवान को संसद के निचले सदन में पार्टी के नेता के पद से हटाने के लिए हाथ मिला लिया है और उनकी जगह उनके चाचा पशुपति कुमार पारस को इस पद के लिए चुन लिया है।

वहीं, पारस ने सोमवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सराहना करते हुए उन्हें एक अच्छा नेता तथा ‘‘विकास पुरुष’’ बताया और इसके साथ ही पार्टी में एक बड़ी दरार उजागर हो गई क्योंकि पारस के भतीजे चिराग पासवान जद (यू) अध्यक्ष के धुर आलोचक रहे हैं।

हाजीपुर से सांसद पारस ने कहा, ‘‘ मैंने पार्टी को तोड़ा नहीं, बल्कि बचाया है।’’ उन्होंने कहा कि लोजपा के 99 प्रतिशत कार्यकर्ता पासवान के नेतृत्व में बिहार 2020 विधानसभा चुनाव में जद (यू) के खिलाफ पार्टी के लड़ने और खराब प्रदर्शन से नाखुश हैं।

पारस ने कहा कि उनका गुट भाजपा नीत राजग सरकार का हिस्सा बना रहेगा और पासवान भी संगठन का हिस्सा बने रह सकते हैं।

चिराग पासवान के खिलाफ हाथ मिलाने वाले पांच सांसदों के समूह ने पारस को सदन में लोजपा का नेता चुनने के अपने फैसले से लोकसभा अध्यक्ष को अवगत करा दिया है। हालांकि पारस ने इस संदर्भ में कोई टिप्पणी नहीं की।

पारस के पत्रकारों से बात करने के बाद चिराग पासवान राष्ट्रीय राजधानी स्थित उनके चाचा के आवास पर उनसे मिलने पहुंचे। पासवान के रिश्ते के भाई एवं सांसद प्रिंस राज भी इसी आवास में रहते हैं।

पारस और प्रिंस के आवास पर करीब 90 मिनट तक रुकने के बाद पासवान वहां से मीडिया से बात किए बिना ही चले गए। ऐसा माना जा रहा है कि दोनों असंतुष्ट सांसदों में से उनसे किसी ने मुलाकात नहीं की। एक घरेलू सहायक ने बताया कि पासवान जब आए तब दोनों सांसद घर पर मौजूद नहीं थे।

सूत्रों ने बताया कि असंतुष्ट लोजपा सांसदों में प्रिंस राज, चंदन सिंह, वीना देवी और महबूब अली कैसर शामिल हैं, जो चिराग के काम करने के तरीके से नाखुश हैं। 2020 में पिता रामविलास पासवान के निधन के बाद लोजपा का कार्यभार संभालने वाले चिराग अब पार्टी में अलग-थलग पड़ते नजर आ रहे हैं।

उनके करीबी सूत्रों ने जनता दल (यूनाइटेड) को इस विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि पार्टी लंबे समय से लोजपा अध्यक्ष को अलग-थलग करने की कोशिश कर रही थी क्योंकि 2020 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ जाने के चिराग के फैसले से सत्ताधारी पार्टी को काफी नुकसान पहुंचा था।

 


शुक्रवार, 11 जून 2021

बिखरता कुनबा

 वैसे तो कांग्रेस पार्टी हमेशा सुर्खियों में रहती है,लेकिन इस बार राहुल गांधी के करीबी रहे जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल होने से यह फिर से चर्चा आई है।उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ऐन पहले जितिन प्रसाद का पार्टी छोड़ना भाजपा के लिए फायदेमंद होगा, उससे कहीं ज्यादा  कांग्रेस केलिए नुकसानदेह हो सकता है।आये दिन कांग्रेस के नेतागण पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, जिससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिमी है।ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जितिन प्रसाद का जाना राहुल गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका है।अब तो राजस्थान कांग्रेस का भी विवाद फिर से सुर्खियों में है और पंजाब में मुख्यमंत्री और नवजोत

सिंह सिद्धू आमने- सामने हैं।इन सबसे पता चलता है कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है और उसके अन्दरखाने का विवाद  पूरी तरह से सतह पर आ चुका है।देखना अब यह है कि पार्टी अपना कुनबा कितना संभाल सकती है? बेहतर होगा कि शीर्ष नेतृत्व इसको लेकर संजीदगी दिखाए।


गुरुवार, 10 जून 2021

हाशिये पर कांग्रेस

 ऐसे तो कांग्रेस पार्टी हमेशा सुर्खियों में रहती है।लेकिन इस बार राहुल गांधी के करीबी रहें जितिन प्रसाद के बीजेपी शामिल होने के बाद सुर्खियों में है।यूपी विधानसभा चुनाव से पहले जितिन प्रसाद का जाना भाजपा के लिए जितना फायदा होगा उससे ज्यादा कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।आये दिन कांग्रेस पार्टी के एक के बाद एक नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं ऐसे में शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिमी है।ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद जितिन प्रसाद का जाना राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ा झटका है।अब तो राजस्थान कांग्रेस में भी विवाद फिर से सुर्खियों में है।राहुल गांधी के करीबी सचिन पायलट भी नाराज चल रहे हैं।उधर पंजाब में भी मुख्यमंत्री और सिद्दू आमने-सामने हैं। इससे पता चलता है कि कांग्रेस में सब कुछ ठीक नहीं है।कांग्रेस की परेशानी साफ दिखाई दे रही है।इतनी परेशान तो कांग्रेस कभी नहीं थी आज इस हालत में हो चुकी है कि अभी तक अपना अध्यक्ष का चुनाव भी नहीं करा पा रही है। क्या पता जून में होगा भी या नहीं ये कहना मुश्किल है? क्योंकि जिस प्रकार से नेतृत्व कांग्रेस कर रही है ये विचारणीय तो है ही।लगातार कांग्रेस कमजोर होती नजर आ रही है।हाल ही में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद राहुल गांधी ने यह कहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था कि अब गांधी परिवार से बाहर से कोई अध्यक्ष पद केलिए चयनित होगा।लेकिन आखिर में फिर से सोनिया गांधी को बना दिया गया।उसके बाद भी माना जा रहा था कि यह चुनाव कुछ समय केलिए ही की गई है,पर अब एक साल से ज्यादा हो चुकी है लेकिन अब तक कुछ हुआ नहीं।

ऐसा देखा गया है कि जो नेता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल करता है या गांधी परिवार से बाहर के नेता को अध्यक्ष बनाने की बात करता है वो या तो पार्टी से बाहर चला जाता है या वो पार्टी के नजरों में आ जाता है।

जहाँ तक जितिन प्रसाद की बात है तो वो एक समय में मनमोहन सिंह के सरकार में मंत्री हुआ करते थे लेकिन पिछले दो चुनाव में खुद अपना शीट नहीं बचा सके थे।बताया जा रहा है कि जब से उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी सक्रिय हुई है उसके बाद से ही जितिन प्रसाद हाशिये पर चले गए थे।अब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस अपने नेताओं को बचा पायेगी या ऐसे ही पार्टी के नेता जाते रहेंगे और कांग्रेस हाथ पर हाथ रख के सोयी रहेगी या कोई स्थायी समाधान निकालने में सफल रहेगी।

कांग्रेस के लिए बेहतर होगा कि नेतृत्व को मजबूत करें और यही भी समझे कि इन सबका जिम्मेदार वह स्वयं खुद है।



रविवार, 6 जून 2021

बिहार के अनपढ़ महिला के मुख्यमंत्री बनने की कहानी दिखाती है 'महारानी,

 महारानी वेब सीरीज में एक अनपढ़ ग्रामीण महिला का किरदार निभा रही हैं, जिन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया जाता है।जिसको कहा जा रहा है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पर फिल्माया गया है।लेकिन मेरे नजर में 'महारानी' वेब सीरीज़ में लालू यादव-राबड़ी देवी की कहानी नहीं है, लेकिन उनकी जैसी राजनीति को क़रीब से दिखाने का प्रयास किया गया है। राबड़ी देवी ने अपने शासनकाल में किस तरह बिहार की राजनीति को प्रभावित किया, क्या बेहतर किया, क्या बर्बाद किया, यह सब समझना और जानना चाहते हैं तो वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अनुरंजन झा की किताब गांधी मैदान पढ़ना चाहिए।

अभिनेत्री हुमा कुरैशी ने ‘महारानी’ सीरीज में ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है।रानी भारती बिहार के एक गांव की  अनपढ़ साधारण औरत है और गाय,भैंस ,बकरी पाल कर अपना जीवन यापन करती है।हालांकि उसके पति बिहार राज्य के मुख्यमंत्री हैं।रानी भारती के जीवन में एक ऐसा  मोड़ आता है कि उसके पति को गोली मार दिया जाता है अचानक तबियत बिगड़ने लगती है।इसके बाद उस अनपढ़ महिला को मुख्यमंत्री बनाया जाता है।जो राजनीति को भी नहीं समझती है।हालांकि धीरे-धीरे राजनीति को भी समझती है और भ्रष्टाचार पर भी नकेल कसने की कोशिश भी करती है।पशुपालन जैसे तमाम घोटाले को उजागर भी करती है और अपने पति यानी पूर्व मुख्यमंत्री को जेल भी भेजवाती है।

अभिनेत्री का अभिनय काबिलेतारीफ है।जैसे किरदार है हूबहू उतारने का प्रयास की है।ठेठ बिहारी के रूप में जो अभिनय किया है वो देखने लायक है।बाकी कलाकारों ने भी कमाल का अभिनय किया है।

सीरीज की डायलॉग की बात करें तो डायलॉग एक से एक है एक डायलॉग जो मुझे काफी पसंद आई और याद भी है।जिसमें रानी भारती कहती है -"आप अपनी पत्नी से मिलना चाहेंगे, तो मैं मिलूंगी, अगर सीएम से मिलना चाहेंगे तो रानी भारती से मुलाकात होगी"।इस सीरीज की डायलॉग एक मजबूत कड़ी है।

अगर हम इस सीरीज की कमी की बात करें तो कई जगह खामियां नजर आई।कहीं कहीं कहानी को खींचने का प्रयास किया गया है जिसको थोड़ा कम करके भी दिखाया जा सकता था।सीरीज के बीच में एक बाबा को प्रवेश कराया जाता है जिसकी आवश्यक ही नहीं थी।

अंत में बस यहीं कहेंगे, सब कुछ नजरअंदाज करके थोड़ा समय महारानी सीरीज को दे दीजिए, राजनीति भी समझ जाएंगे, एंटरटेनमेंट भी हो जाएगा और कोरोना काल में एक शानदार सीरीज भी देख लेंगे और हाँ गांधी मैदान जरूर पढ़ें।



गुरुवार, 3 जून 2021

तीसरी लहर का डर

 कोरोना की पहली लहर और दूसरी लहर के बाद अब तीसरी लहर की चर्चा जोरों पर है।वैज्ञानिक अभी से ही कमर कसने की बात कर रहे हैं। वाकई, आग लगने पर कुआं खोदने से बेहतर होगा अविलंब तीसरी लहर के खिलाफ आगे की रणनीति बना लेनी चाहिए।तीसरी लहर में बच्चों के संक्रमित होने की आशंका सबसे ज्यादा जताई जा रही है।इसका ख़ास ध्यान रखकर पूरी योजना बना लेनी चाहिए,तब ही हम इस तीसरी लहर से सामना कर सकते हैं। अब सरकार को भी शिक्षा और स्वास्थ्य पर बजट बढ़ा देनी चाहिए।अगर हमारा समाज शिक्षित होगा तब ही इस अदृश्य वायरस से लड़ने में कामयाब हो सकते हैं।


अरुणेश कुमार, चंपारण (मोतिहारी)

गुरुवार, 13 मई 2021

नकारात्मकता के माहौल में सकारात्मक कैसे रहें

 अब कुछ मीडिया संस्थान एवं सरकारें द्वारा एक नया ट्रेंड चलाया जा रहा है कि सकारात्मक रहो,खुश रहो।वो भी तक जब आपके आस पड़ोस में चीख-पुकार की शोर सुनाई दे रही हो।आखिर ये कौन लोग हैं जो हमारे समाज को अलग करने पर तुले हैं? यह वही लोग हैं जो कल तक सरकार के हर मुद्दे पर लिपा-पोती करके सरकार की नाकामियों को छुपाने का प्रयास करते रहे हैं।कुछ मुद्दे से भटकाने में लगे हैं तो कुछ समाजिक अलगाव पैदा करने में।आज वही लोग हमें सकारात्मक रहने का ज्ञान बांट रहे हैं।चलिए मान लेते हैं कि हम सकारात्मक रह लेंगे।फिर सवाल आता है कि सकारात्मक रहें तो कैसे रहें? जब देश में लाशें सड़ रही हैं,  दवाई नहीं मिल रही है, ऑक्सीजन नहीं मिल रहा है,अस्पतालों में मरीजों को बेड नहीं मिल रहा है, जरूरतमंद मरीजों को रेमडीसीवर नहीं मिल रहा है,श्मशानों में जगह नहीं, लाशें जलाने केलिए लकड़ी नहीं मिल रही है तब सकारात्मक कैसे रह सकते हैं? वे लोग सकारात्मक कैसे रह सकते हैं? जिनके परिजनों की मृत्यु ऑक्सीजन,दवाई, बेड, अस्पताल, एम्बुलेंस न मिलने के कारण हुई हो,जिसने अपनी माँ को खोया हो,जिसने अपने पिता को खोया हो,जिसने अपने माता-पिता को खोया हो,जिसने अपने भाई-बेटा खोया हो,जिसने अपनी बेटी-बहन खोया हो।भला उन्हें कैसे कह सकते हैं कि तुम सकारात्मक रहो?

हाँ ये बात बिल्कुल ठीक है कि आप सकारात्मक रहें, सकारात्मक सोचें। लेकिन ये ज्ञान तब बांटी जा रही है जब आपके अंदर सरकार से पूछने के लिए तमाम सवाल उधेड़ रही है।

ये वही लोग हैं जो पिछले सात सालों से माइंडवाश करते आये हैं।कभी हिंदू-मुस्लिम, कभी राष्ट्रवाद, कभी देशद्रोही, तो कभी जय श्रीराम जैसे मुद्दों पर जहर उगलकर आपको नकारात्मक बनाने का कोई कसर नहीं छोड़ा।इनका कोई काम नहीं है हमेशा जहर उगलते रहना है।चाहे वो तब थे या अब हैं।



गुरुवार, 6 मई 2021

चौरासी : सत्य व्यास

 किताब : चौरासी

लेखकः सत्य व्यास

प्रकाशकः हिंद युग्म
पृष्ठः 160
मूल्यः 150 रुपए


सत्य व्यास के द्वारा लिखी गई 'चौरासी' में ऋषि और मनु की प्रेम कहानी है।1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के निधन के पश्चात हुए दंगों का विवरण हमें इस पुस्तक में देखने को मिलता है।कैसे अपने ही पड़ोसी और जान पहचान के लोग हमारे विरुद्ध खड़े होने पर उतारू हो गए, यह देखने को मिलता है।कैसे पूरे सिख समुदाय पर नरसंहार शुरू हो गई थी? किस प्रकार किताब का नायक ऋषि हिंसक दंगो से अपने प्रेमी के परिवार को बचाता है? जबकि कि वह स्वयं दंगाई था।किरदारों की बात करें तो किरदार ज़्यादा नहीं हैं. मनु, ऋषि, छाबड़ा साहब मुख्य हैं।मनु का किरदार काफी मज़बूत है. तमाम परिस्थितियों में भी कहीं से भी कमज़ोर नहीं होता।
सत्य व्यास ने प्रेम और हिंसा यानी दोनों ध्रुवों को गजब के संतुलन में लिखा है।एक तरफ जहां प्रेम/प्रेमिका के पहले स्पर्श को दर्शाता है तो दूसरी तरफ हिंसक दंगो के सामने खड़ी मौत से रूबरू कराता है।
कुल मिलाकर इस किताब के बारे अपने शब्दों में कहूँ तो  प्रेम भी है, देश भी है, विद्रोह भी है, लाचारी भी  है, मानवता के साथ स्वार्थ भी है, राजनीति भी है।भारत देश की एक छवि भी है।जिसे लेखक ने अपनी कलम से उस खूबसूरती को पिरोया है।
किताब की भाषा की बात करें तो हमेशा की तरह नई वाली सरल हिंदी है. पढ़ने में मज़ा आता है. किताब सीधे-सीधे पढ़ी जा सकती है. एक बार में खत्म की जा सकती है।


किताब के कुछ लाइनें, जिसका जिक्र जरूरी है


“प्रेम की किस्मत में  आज भी सीढ़ियां नहीं होती, लिफ्ट नहीं होती, एस्केलेटर नहीं होते, आज भी दरिया, वो भी आग वालों से ही गुज़ारना  पड़ता  है .”

“दुनिया का समस्त ज्ञान व्यर्थ है, यदि स्त्री के मन को नहीं पढ़ पाता.“

“अफ़वाह की सबसे विनाशकारी बात यह होती है कि यह नसों में लहू की जगह नफ़रत दौड़ाती है.”

“अदला-बदली पत्रोँ की ही नहीं, पीड़ाओं की भी होती है.” “लड़की जब अपने सपनों के साथ निकलती है तो सबसे ज्यादा सुरक्षा अपने सपनों की ही करती है.” “राह भर ही नहीं, रात भर मुस्कराती रही.”



सोमवार, 3 मई 2021

तो क्या प्रधानमंत्री मोदी की हार हुई?

 बंगाल चुनाव के बाद राजनीतिक बुद्धिजीवियों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी हार गए हैं।तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हार गए हैं? दरअसल हकीकत यह है कि एक प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के पूरी झुंड को बहुत जोरदार पटखनी दी है।ममता बनर्जी ने प्रचंड जीत हासिल की है।पिछ्ली बार से ज्यादा सीटें हासिल की है।बंगाल में कोई मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं था अगर जीत होती तो मोदी जी की होती।यानि बंगाल चुनाव के मुख्य चेहरा मोदी ही थे।अब अगर हार हुई है तो हार सेहरा भी मोदी जी पर ही बांधा जाना चाहिए।अब सवाल यह है कि बंगाल चुनाव में हार का ठिठरा किस पर फूटेगा? मोदी जी हर चुनाव में प्रधानमंत्री पद भूलकर प्रचारमंत्री बन जाते हैं।मुझे लगता है इस बात केलिए उनकी  तारीफ़ भी की जानी चाहिए कि वो अपनी पार्टी के जीत केलिए सबसे ज्यादा मेहनत करने वाले प्रधानमंत्री हैं।मतलब मोदी जी हैं तो भाजपा है।पार्टी के छोटे से छोटे काम भी मोदी जी के ही कंधे पर है।पार्टी में मोदी की छवि ऐसी हो गई है कि अब मोदी जी को मुख्यमंत्री बनाने की मशीन कहे जाने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए।मोदी जी जहाँ जाते हैं उधर से जीत हासिल करके ही आते हैं लेकिन बंगाल में ममता बनर्जी ने मोदी जी का जीत अभियान रोक दिया है।यह कहने में भी गुरेज नहीं होगा कि बंगाल चुनाव परिणाम के बाद मोदी जी के व्यक्तिगत छवि का नुकसान हुआ है। अब तक पार्टी एवं कार्यकत्ताओं केलिए मोदी जी किसी फरिश्ते से कम नहीं थे।लेकिन अब  देशवासियों के नजर से उतरते जा रहें हैं। इसके कई कारण हैं मेरे नजर में पहला कारण किसान आंदोलन।क्योंकि याद होगा किसान आंदोलन को भाजपा ने आतंकियों अड्डा बताया था।इसके बाद भी प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी।दूसरा कारण कोरोना जैसे आपदा के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने बंगाल चुनाव केलिए  जिस तरह से अपने कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियों को भुला।उससे देशवासियों के नजर में और गिर गए हैं।लोगों में यह संदेश साफ तौर पर पहुंचा है कि आये दिन लोग   हजारों की संख्या में मरते जा रहे थे लेकिन मोदी चुनाव में व्यस्त थे।एक के बाद एक तारातरा रैली करते जा रहे थे।लाखों की संख्या में उनकी रैलियों में लोग पहुँच रहे थे।वो भी बिना मास्क और बिना किसी सोशल डिस्टेंस के।जो खुद कहते हैं कि जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं।दो गज-दूरी मास्क है जरूरी।जो खुद कहते हैं कि घर में रह कर ही कोरोना को हराया जा सकता है।लेकिन उन्होंने अपनी कही बात को एक बार फिर जुमला साबित कर दिया है।यह बात कहने में कही से संकोच नहीं कि जानी चाहिए देश के प्रधानमंत्री ने अपनी ही फायदे केलिए अपने ही देशवासियों को कोरोना के मुँह में झोंक दिया।लाशों की जाल बिछा दीं।इस कोरोना महामारी में जिन लोगों ने अपनों को खोया है।जिनको अस्पताल में जगह नहीं मिली।जिन्होंने ऑक्सीजन के बिना अपना प्राण त्याग दिया।जिनलोगों को दवाई नहीं मिली।जिनलोगों को शमशान में दो-दो-तीन-तीन दिन लाईन में लगानी पड़ रही थी।जिन लोगों को शमशान में लकड़ियां नहीं मिली।वो लोग तो प्रधानमंत्री की चुपड़ी - चुपड़ी बातों से मनने वाले तो नहीं हैं।

लोग अब तक प्रधानमंत्री की हर बात मानते आए हैं चाहें वो नोटबन्दी हो ,ताली-थाली बजाना हो,दिया जलाना हो,पूरे देश में ताला बंदी करनी की बात हो।

मेरा मानना है बंगाल में केवल भाजपा की हार नहीं हुई है।बल्कि देश के अभिभावक,बड़े बुजुर्ग घर के सदस्य के तौर पर इनकी छवि धूमिल हुई है।चाहे वो टैगोर वाली छवि ही क्यों न हो। स्वघोषित प्रधानसेवक की छवि भी धूमिल हुई है।



शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

सरकारें मर चुकी है।

 "उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, राज्य चुनाव आयोग और बेसिक शिक्षा मंत्री को लिखे पत्र में बताया है कि पंचायत चुनाव ड्यूटी के दौरान कोरोना संक्रमित हुए 706 प्राथमिक शिक्षकों और बेसिक शिक्षा विभाग के कर्मचारियों की जान गई है. संघ ने मतगणना टालने की मांग की है."

        हे भगवान!क्या हो रहा है इस देश में?अब तो सरकार नाम से ही घिन आती है।जनता के वोट से पालने वाली सरकार इतना मक्कार हो सकती है।एक के बाद एक मौत होती जा रही है लेकिन सरकार को सिर्फ चुनाव से मतलब है।चाहे वो चुनाव लाशों के ढ़ेर पर ही क्यों न हो?लानत है ऐसी सरकार और मतलबफरोस नेतागण जो चुनाव केलिए इस देश को श्मशान बना दिया है।क्या जरूरी है चुनाव कराना?क्या जरूरी है मतगणना करना? जब पता है कि सैकड़ो मतदानकर्मियों की मौत हो चुकी है।लेकिन फिर भी ये सरकार सोयी हुई है।अब भी समय है प्रधानसेवक जी यूपी (पंचायत चुनाव) समेत पांच राज्यों के मतगणना को रोक दीजिए।नहीं तो आगे क्या होगा? अब  भगवान ही मालिक हैं।

अगर अब भी सरकार चुप रहती है और मतगणना कराई जाती है तो हमें यह समझ लेना होगा कि सरकारों को आपके जान से कोई लेना देना नहीं है।आप सरकार के लिए सिर्फ संख्या मात्र हैं।इनको लाशों के ढ़ेर में चुनाव लड़ने में कई दिक्कत नहीं है।

आपको याद होगा हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि चुनाव आयोग ने रैली क्यों नहीं रोकी? कोर्ट ने चुनाव आयोग को गैर-जिम्मेदार संस्था भी कहा था एवं इसके अधिकारियों पर हत्या का मामला चलाना चाहिए।लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर यह मामला चलायेगा कौन? क्योंकि इसके पीछे तो सरकार ही खड़ी है।



Arunesh Kumar

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

आप प्रधानमंत्री हैं प्रचारमंत्री नहीं

 हे महाराज! चुनाव आप अपने देश में लड़ते हो तो यहीं लड़ो न।क्यों दूसरे देश में जाकर प्रचार करते हैं? इससे बनी बनाई रिश्ते खराब होते हैं।लीजिए बाइडेन ने भी कह दिया कि अब हम भारत को वैक्सीन बनाने वाले कच्चे माल नहीं देंगे।आपको तो सिर्फ चमचागिरी करना था।अबकी बार ट्रम्प सरकार-अबकी बार ट्रम्प सरकार।तो कीजिए एक के बाद एक रैली।इसलिए कहते हैं लुबुर-लुबुर करने से छवि ही खराब होती है।लेकिन ये बात आपको तोसमझ आएगी भी नहीं।

पिछले साल आप ट्रम्प को हाइड्रोऑक्सीड भेज रहे थे।दे- दना- दन भेजते जा रहे थे।लेकिन अंत में क्या हुआ कूटनीति सब धरे-के-धरे रह गया।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

ऐसे में जनता क्या करें?

 हमें लगता है भारतीय नेताओं जैसी घोषणा दुनिया के किसी देश के नेता नहीं करते होंगे।घोषणा करके लोगों का ध्यान भटकाना कोई भारतीय नेताओं से सीखें।इस समय, जब देश को सबसे ज्यादा जरूरत अस्पतालों में ऑक्सीजन, बेड, दवाई ,डॉक्टर्स एवं अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की है, तब हमारे देश के नेतागण इस पर ठोस बात न करके एक मई से अठारह (18) वर्ष के ऊपर सभी लोगों को टीका लगाने की घोषणा कर रहें। भला यह कैसे होगा? इसका अभी तक कोई खाका तैयार नहीं किया गया। अमेरिका जैसे देश की आबादी हमारे देश की चौथाई भर है इसके बावजूद भी वहां टीके बनाने वाले कई कम्पनियां हैं।उसने अब जाकर सभी युवाओं को टीका देने की शुरुआत की है।मगर अपने यहां तो सिर्फ दो ही कम्पनियां है,जो सीमित मात्रा में टीके का उत्पादन कर रही है।हालांकि कुछ टीके का आयात करने का फैसला भी किया गया है लेकिन यह कब तक सम्भव होगा, पता नहीं।ऐसे में यह सवाल बड़ा गंभीर है कि  जब हम 45 साल के ऊपर वाले सभी लोगों को टीका नहीं दे पा रहे हैं, तो लगभग 70 करोड़ नई आबादी केलिए कहां से टीका आएगा? ऐसे तो पूरे देश में अफरा-तफरी मच जायेगी।

दूसरी स्थिति यह है कि जिन वरिष्ठ नागरिकों के टीके की दूसरी खुराक  नहीं मिल पा रही है,जिनके टीकाकरण का वक्त आगया है।समस्या यह हो चुकी है कि अस्पतालों में न टीके उपलब्ध हैं न इसकी आस-पास कोई व्यवस्था हो पा रही है।हालात तो ऐसे हो गए हैं कि बुजुर्ग लोग अस्पताल जा रहे हैं लेकिन टीका उपलब्ध न होने के कारण लौटकर  आ जा रहे हैं। ऐसे में बुजुर्ग क्या करें? कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए हर अस्पताल के चक्कर भी नहीं लगाए जा सकते हैं।यानी कोरोना के मरीज लगातार बढ़ रहें हैं।लेकिन सरकार टीकाकरण अभियान का उचित प्रबंधन नहीं कर पा रही है।जहां भी कमियां सामने आ रही है,वहां हमारी सरकार को पूरी मुस्तैदी से काम करना चाहिए।लेकिन आलम यह है कि आज देश में कोरोना से कम लेकिन सरकार की व्यवस्था के कारण ज्यादा लोग मर रहें।



अरुणेश कुमार,

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

बिहार के स्वास्थ्य व्यवस्था

 कोरोना वायरस लगातार बढ़ रहा है. बढ़ता कोरोना एक बार फिर स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल रहा है. बिहार की राजधानी पटना में इलाज न मिलने से कई मरीजों की मौत हुई है. राजधानी पटना के सबसे बड़े दूसरे अस्पताल NMCH में कोरोना संक्रमित मरीजों की हो रही लगातार मौत से पीड़ित परिजनों में खासा आक्रोश है. पटना में कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच NMCH अस्पताल में सभी बेड भर गए हैं. अस्पताल के बाहर एम्बुलेंस में पड़े मरीज की मौत होने से परिजनों का रो-रो कर बुरा हाल है.

 

बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था हो या शिक्षा व्यवस्था आए दिन सवालों  के घेरे में रहता है।हैरानी तो तब हुई जब NMCH के सुपरिटेंडेंट ने सरकारी व्यवस्था के कारण इस्तीफे की पेशकश कर दी।कारण यह था कि अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी होई गई थी।सुपरिटेंडेंट के सभी प्रयास विफल हो रहे थे,अंत में इस्तीफे की पेशकश कर दी।

अफवाहों से बचे

 जब से कोरोना का कहर भारत मे शुरू हुआ है,तब से संक्रमण तो फैला ही है,पर उससे कहीं ज्यादा अफवाहें फैली है।कई तरह की बात सोशल मीडिया पर की जा रही है।खानपान से लेकर इलाज संबंधी जानकारियां लोगों द्वारा शेयर की जा रही है , अब इसमें कितनी सच्चाई है कोई नहीं जानता।अब एक बात तो स्पष्ट हो चुकी की जैसे जैसे कोरोना का संक्रमण बढ़ते जा रहा है वैसे वैसे झोला छाप डॉक्टरों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।अब एक उदाहरण मास्क का ही ले लीजिए। चुनावी रैलियों में तमाम तस्वीरें दिखाकर मज़ाज बनाया जा रहा है।लोग तो यह कहने लगे हैं कि जहां चुनाव है वहां कोरोना नहीं है।वैसे लोगों को समझना चाहिए कि राजनीतिक दल तो अपनी अपनी सियासी रोटियां सेंककर निकल जाएंगे,लेकिन बाद में झेलना तो जनता को ही है।इसलिए अपनी सुरक्षा का ख़्याल रखना प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है।हमें ऐसी अफवाहें पर ध्यान न देते हुए कोरोना से बचाव के उपाय करने चाहिए।

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

नैना : संजीव पालीवाल

 किताब : नैना -'एक मशहूर न्यूज एंकर की हत्या'

लेखक : संजीव पालीवाल

प्रकाशक : एका (वैस्टलैंड)

पृष्ठ : 272


'नैना' मर्डर मिस्ट्री पर आधारित लेखक और साहित्यकार संजीव पालीवाल की पहली उपन्यास है।इस किताब की कहानी नेशनल चैंनल के न्यूज़ एंकर के जीवन पर आधारित है।जिसका नाम नैना वशिष्ठ है।नैना एक खुशमिजाज लड़की है जिसको  अपने जीवन में करियर को लेकर  खुद को केंद्रित रहना ज्यादा पसंद है।नैना अपने जीवन में ऊंचाईयों पर जाने की चाह रखती है।उसकी हर वो सपना साकार होता है जो वो करना चाहती है। उसकी ज़िन्दगी में रुतबा, पैसा सब कुछ है। लेकिन एक रोज़ उसका कत़्ल हो जाता है। शक नैना के पति समेत दो लोग पर जाता है।लेकिन क़त्ल कौन करता है? ये तो किताब पढ़ने के बाद ही पता चलेगा। इस किताब में सबसे मजेदार तब लगती है जब नैना की मौत एक दिन पहले हो जाती है।लेकिन जब कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है सस्पेंस बढ़ते जाता है।  


लेखक ने बताने की कोशिश की है टीवी के चकाचौंध के पीछे की हकीकत कैसी होती है? कैसे ज़िन्दगी दौड़ती है, जिसमें आप इतनी तेज़ होते हैं कि वक्त पीछे छूटता सा लगता है। टीवी न्यूज़ चैनलों की दुनिया में क्या घटता है, कोई घुटता है, कैसे होता है वो सब जो हम बाहर से नहीं जान पाते, और किस तरह वो उसे महसूस करते हैं जो उस शोहरत भरी ज़िन्दगी को जी रहे हैं।

इस कहानी के जरिए टीवी की चकाचौंध की सच्चाई जाने पढ़कर चौंक सकते हैं।यह किताब में आजकल के समाज के रिश्तों को भी बयाँ करती है।

कुल मिलाकर इस किताब की कहानी रोचक और रहस्यमयी है।किताब की भाषा सरल और साधारण होने के कारण पाठक को अंत अंत बांधे रहता है।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

इंडियन एक्सप्रेस की यह रिपोर्ट बेरोजगारी केलिए चिंता का विषय

 

कोरोना महामारी के बीच अनियोजित तरीके से लागू किए गए लॉकडाउन के चलते करोड़ों की संख्या में दिहाड़ी मजदूर अपने गांवों की ओर लौटने को मजबूर हुए थे. ऐसे में ग्रामीण रोजगार योजना मनरेगा उनकी आजीविका का एकमात्र जरिया बना.
साल 2006-07 में मनरेगा की शुरूआत के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि इस योजना के तहत किसी एक वित्तीय वर्ष (2020-21) में 11 करोड़ से अधिक लोगों ने कार्य किया है. यह रिपोर्ट दिखाता है कि लॉकडाउन के कारण बेरोजगारी कितना चिंता जनक है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, एक अप्रैल तक के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में 11.17 करोड़ लोगों ने कार्य किया, जो 2019-20 में कार्य किए 7.88 करोड़ लोगों की तुलना में 41.75 फीसदी अधिक है.

उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि इससे पहले 2013-14 से 2019-20 के बीच 6.21 करोड़ से 7.88 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत रोजगार प्राप्त किया था.

वहीं यदि परिवारों के आंकड़ों को देखें तो वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान सबसे ज्यादा 7.54 करोड़ परिवारों ने मनरेगा में काम किया. यह 2019-20 में काम किए 5.48 करोड़ परिवारों की तुलना में 37.59 फीसदी अधिक है. इससे पहले सबसे ज्यादा परिवारों द्वारा मनरेगा में काम करने का रिकॉर्ड वर्ष 2010-11 का था, जब 5.5 करोड़ परिवारों ने काम किया था.

इसके साथ ही 2020-21 में सबसे ज्यादा 68.58 लाख परिवारों ने मनरेगा में 100 दिन के लिए काम किया, जो कि इससे पहले 2019-20 में 40.60 लाख परिवारों द्वारा पूरा किए गए 100 दिन के कार्य की तुलना में 68.91 फीसदी अधिक है.

कुल मिलाकर वित्त वर्ष 2020-21 में प्रति परिवार ने औसतन 51.51 दिन काम किया, जो कि इससे पहले 2019-20 में 48.4 दिन की तुलना में थोड़ा अधिक है.

याद हो कि कोरोना वायरस के चलते उत्पन्न हुए अप्रत्याशित संकट के समाधान के लिए मोदी सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत योजना’ के तहत मनरेगा योजना के बजट में 40,000 करोड़ रुपये की वृद्धि की थी.

इस तरह पूर्व में निर्धारित 61,500 करोड़ रुपये को मिलाकर मौजूदा वित्त वर्ष 2020-21 के लिए मनरेगा योजना का बढ़कर 1.01 लाख करोड़ रुपये हो गया. किसी वित्त वर्ष के लिए यह अब तक का सर्वाधिक मनरेगा बजट था.

बुधवार, 24 मार्च 2021

अक्टूबर जंक्शन : दिव्य प्रकाश दुबे

 

अक्टूबर जंक्शन दिव्य प्रकाश दुबे की एक ऐसी किताब है। जिसकी कहानी दिल और दिमाग में चढ़ते जाता है
कहानी बनारस से शुरू होती है जहाँ चित्रा और सुदीप धोखे से एक-दूसरे से मिलते हैं और दुनिया की एक खूबसूरत प्रेम कहानी बनती चली जाती है। चित्रा और सुदीप की यह कहानी हर किसी के पढ़ने लायक है।

किताब की कुछ पंक्तियां जो दिल छू लेती हैं :-

एक अधूरी उम्मीद ही तो है जिसके सहारे हम बूढ़े होकर भी बूढ़े नहीं होते। किसी बूढ़े आशिक़ ने मरने से ठीक पहले कहा था कि एक छंटांक भर उम्मीद पर साली इतनी बड़ी दुनिया टिक सकती है तो मरने के बाद दूसरी दुनिया में उसकी उम्मीद बांधकर तो मर ही सकता हूँ। बूढों की उम्मीद भरी बातों को सुनना चाहिए।

किसी के साथ बैठकर चुप हो जाना और इस दुनिया को रत्ती भर भी बदलने की कोई भी कोशिश न करना ही तो प्यार है!

हर आदमी में एक औरत और हर औरत में एक आदमी होता है। हर आदमी अपने अंदर की अधूरी औरत को जिंदगी भर बाहर ढूँढता रहता है लेकिन वो औरत बड़ी मुश्किल से मिलती है। वैसे ही हर औरत अपने अंदर का अधूरा आदमी ढूँढती रहती है लेकिन वो अधूरा आदमी बड़ी मुश्किल से मिलता है। और कई बार वो अधूरा मिलता ही नहीं। लेकिन अगर एक बार अधूरा हिस्सा मिल जाए तो आदमी मरकर भी नहीं खोता। तू ध्यान से देख वो कहीं नहीं गया तेरे अंदर है। आधी तू आधा वो।

नदी और जिंदगी दोनों बहती हैं और दोनों ही धीरे-धीरे सूखती रहती हैं।

 


किताबः      अक्टूबर जंक्शन
लेखकः        दिव्य प्रकाश दुबे
पृष्ठः           150
मूल्यः          125 रुपए
प्रकाशकः     हिंद युग्म

बुधवार, 17 मार्च 2021

जुहू चौपाटी : साधना जैन

 

जुहू चौपाटी , साधना जैन का उपन्यास है जिसकी कहानी एक फ़िल्म अभिनेत्री के इर्दगिर्द घूमती है।यह साधना जी की पहली किताब है।इनकी भाषा की पकड़ जानना हो तो इस किताब को पढ़ सकते हैं।किसी भी राईटर केलिए  सरल और सहज भाषा में लिखना बहुत मुश्किल होता है।
इस किताब में एक भूतपूर्व अभिनेत्री की कहानी है जो मर चुकी है।उस अभिनेत्री का नाम मीरा है।मीरा की अचानक मृत्यु हो जाती है।जब उसकी आत्मा खुद को मृत देखती है तो उसको बिल्कुल विश्वास नहीं होता है। "दुनिया से भागा जा सकता है, खुद से नहीं।" मीरा वहां से अचानक घबराई हुई लड़की की तरह भाग जाती है।जिस दिशा में वह जा रही थी वो रास्ता 'जुहू चौपाटी' की तरफ जाता था।जुहू चौपाटी मुंबई शहर का सबसे प्रसिद्ध तट है।मीरा भी इसी तट पर बैठकर अपने मरने की वजह खोज रही है।दरअसल उसको यह भी नहीं मालूम है कि उसकी हत्या किसने की? सब कुछ वो यही से याद करती है।शिमला वाला घर छोड़ कर दिल्ली क्यों आई थी? वहां से मुंबई क्यों गई? कैसे बॉलीवुड में अभिनेत्री बनी? क्यों उसने बॉलीवुड की बड़ी अभिनेत्री होने के बावजूद फिल्मों से काम करना छोड़ दिया? मीरा की मृत्यु कैसे और क्यों होती है? राजी,संदीप,राजीव, रीना ,शास्त्री जी और मीठी से क्या संबंध थे मीरा की।इन सब प्रश्नों का उत्तर उपन्यास पढ़ने के बाद ही मिल सकता है।


कुछ पंक्तियां जिन्होंने बहुत कुछ कह दिया उनका उल्लेख जरूरी है-
"हमारा वर्तमान हमारे अतीत का अपग्रेड वर्जन ही तो है।हम चाहें भी तो अपने ओल्डसेल्फ़ मे वापस नहीं जा सकते।जिस तरह मुँह से निकले हुए हमारे शब्द पराए हो जाते हैं, उसी तरह हमारा जिया हुआ कल हमारे आज से अजनबी होता जाता है।"


"हमारी सोच ,हमारे विचार हमारी भावनाएं, हमारी पसंद सब वक्त के साथ बदल जाते हैं।और ये बदलाव पलक झपकते ही नहीं हो जाता।ये प्रक्रिया हर सेकेंड चालू रहती है जिसका हमें पता भी नहीं चलता।और एक दिन हम पाते हैं हम वह रहे ही नहीं जो कल थे।"


"कई बार हम ऐसा कुछ कर जाते हैं जिसे करने के बाद हमें खुद हैरानी  होती है।कुछ ऐसा जो हम कब का करना छोड़ चुके होते हैं या वह हमने अपनी जिंदगी में कभी किया ही नहीं होता।फिर अचानक ऐसा कुछ घट जाता है जिसके बाद हम वह काम इस तरह से कर जाते हैं, मानो ये प्यास लगने पर पानी पीने जैसी आम बात हो।"


"जिस पल रात सुबह में बदल रही होती है उस पल को देखकर ऐसा लगता है जैसे पूरा आसमान हमसे कहना चाहता हो कि कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता।हर रात की मंजिल सुबह है।हर दुःख का अंत सुख है।और सुख की भी एक निश्चित उम्र है।"


"दो लोगों के बीच की वैचारिक क्षमता का वजन जब होने वाली बातचीत के तराजू के दोनों पलड़ों में बराबर पड़ता है तभी यह तय होता है कि उनके बीच बनने वाला रिश्ता कितना गहरा होगा!दूर कितना जाता है इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है।"


"इंसान जिंदा हो या मरा हुआ उसे किसी न किसी का साथ चाहिए।वह अकेले बचा तो रहता है मगर मानसिक तौर पर बीमार होता जाता है।
"

लिखने केलिए तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन प्रतिक्रिया की भी अपनी सीमा होती है।अंत में मैं लेखिका को बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ कि जिसने एक नए तरीके से कहानी को पेश की।आशा करता हूँ कि आगे भी ऐसे ही कुछ नया लिखने का कोशिश करेंगी।
पुस्तक : जुहू चौपाटी
लेखिका : साधना जैन
प्रकाशन : हिन्द युग्म
मूल्य : 150 रुपये मात्र


मंगलवार, 16 मार्च 2021

कांग्रेस को आत्मविश्लेषण की जरूरत

 कांग्रेस पार्टी केलिए चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव कितने महत्वपूर्ण हैं ये बताने की जरूरत नहीं है।इस समय कांग्रेस की स्थिति क्या हो चुकी है ये भी बताने की जरूरत नहीं है।जाहिर सी बात है कि कांग्रेस की दशा देखकर कट्टर समर्थक भी हताश हो रहे होंगे।दरअसल कांग्रेस की स्थिति इतनी खराब होने के पीछे भी कांग्रेस नेताओं का हाथ है।आपने देखा होगा राहुल गांधी  सिर्फ केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में प्रचार करते दिख रहे हैं। वही प्रियंका गांधी असम में दिख रही है।इसका मतलब क्या है? वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सिर्फ सोशल मीडिया पर अपने उलूल-जलूल बयान देते नजर आ रहें हैं।दरअसल जिस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को जी जान लगाकर चुनावी अभियान लगाना चाहिए था,तब ये लोग अपने ही पार्टी के खिलाफ अजीबोगरीब बयान देकर फंसते नजर आते हैं।चाहे वो राहुल गांधी का बयान हो या किसी अन्य वरिष्ठ नेताओं का,हमेशा से सवालों के घेरे में ही रहता है। विडंबना तो यह है कि अगर कोई नेता पार्टी के हित में सच्चाई दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ अन्य सदस्य पार्टी से बाहर निकालने केलिए एक अलग मोर्चा खड़ा कर देते हैं।हाल ही में गुलाब नबी आजाद के साथ क्या हो रहा है ये बताने की जरूरत नहीं है। दरअसल यह परिदृश्य सिर्फ कांग्रेस पार्टी की ही नहीं है अन्य पार्टीयों में भी ऐसा होते रहा है।आजकल तो सरकार के नीतियों के खिलाफ कुछ बोलने की कोशिश करते हैं तो उनके समर्थक देशद्रोही घोषित करने लगते हैं।दरअसल यही सच्चाई है।

जिस  समय कांग्रेस को नरेंद्र मोदी और अमित शाह  के खिलाफ मोर्चा संभालना चाहिए था उस समय पार्टी अपने ही नेताओं के बयान से उलझे हुए है।हाल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने पार्टी के हित में बंगाल के पीरज़ादा अब्बास सिद्धिकी के साथ होने वाले  गठबंधन का विरोध किया तो कांग्रेस पार्टी के दूसरे नेता अधीर रंजन चौधरी उनका किस तरह से माजक बनाया यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
ध्यान देने की बात है जब कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के संगठन मजबूत करने केलिए और स्थाई अध्यक्ष केलिए जो पत्र लिखा गया था उसमें भी वही नेता थे जो पार्टी के हित चाहते थे।हालांकि उनके पत्र पर कोई विचार तक नहीं किया गया।दरअसल होना यह चाहिए था कि पार्टी के अध्यक्ष एक बैठक बुलाते सर्वसम्मति से पार्टी के हित मे चर्चा की जाती,विचार विमर्श होती।लेकिन ऐसा हुआ नहीं।अगर ऐसा हुआ रहता तो ऐसी नौबत ही नहीं आती।आज कांग्रेस इस स्थिति हो चुकी है भाजपा के खिलाफ खड़ा होने में भी सोचना पड़ता है।इसका नतीजा पिछले चुनावों के आंकड़ों से देखा जा सकता है।
     कांग्रेस की मौजूदा  स्थिति से यही अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर ऐसी हालात रही तो आगामी विधानसभा चुनाव में वही स्थिति रहेगी जो पिछले छः सालों से देखने को मिल रहा है।संयोग से अगर कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा तो पार्टी के चाटूकार लोग गांधी परिवार की चाटूकारिता करते हुए नज़र आएंगे।इससे कांग्रेस का भविष्य क्या होगा देखना बड़ा दिलचस्प होगा?


रविवार, 14 मार्च 2021

ये कैसी चोट थी,24 घण्टे में कटा प्लास्टर ममता पर रविकिशन का तंज

 

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के दिन जितने नजदीक आ रहे हैं सियासी माहौल उतना ही गरम होता जा रहा है। प्रदेश में छिटपुट हिंसा के साथ नेताओं के आराेप- प्रत्यारोप का दौर जारी है। ममता बनर्जी पर कथित हमले को बीजेपी के ‘नौटंकी' करार दिया है तो वहीं मुख्यमंत्री का कहना है कि उन पर हमला किया गया है। अभिनेता और बीजेपी के गोरखपुर से सांसद रवि किशन ने ममता बनर्जी के अस्पताल से निकलकर व्हीलचेयर पर चुनाव प्रचार करने पर तंज साधा है। उन्होंने अपने ट्विटर पर एक ट्वीट से माध्यम से कहा कि कैसी चोट थी जो 24 घंटे में ही प्लास्टर कट गया।


रवि किशन ने अपने ट्वीटर पर लिखा, ‘व्हीलचेयर पर दीदी बैठे, सबसे मांगे वोट। 24 घंटे ने प्लास्टर कटा, ये कैसी थी चोट। जोगिरा सा रा रा रा...।'



रविवार, 28 फ़रवरी 2021

चुनाव यात्रा

 नेताओं को अपनी भागीदारी को समझना बहुत जरूरी होता है।लेकिन ये नेता लोग खुद को कभी भी उस लायक नहीं बना सकते हैं ताकि गरीब लोग उनको एक मसीहा के तौर पर देखें।अगर कुछ करते भी हैं तो सिर्फ चुनाव लड़ने केलिए किस व्यक्ति से किस प्रकार से वोट लेना या फिर वोट खरीदना है? ये तरीका बखूबी निभाते हैं।

लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुना गया व्यक्ति ही प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन जमीनी स्तर पर देखा जाए तो बड़ा हास्यास्पद लगता है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में ,जब मैं अपने गांव के  चौक-चौराहे पर घूम रहा था,उस वक्त लोगों से ओपिनियन लेने की कोशिश करता था।कभी कोई मिल गया तो बात कर लेते थे,जैसे कभी कोई कंडीडेट ही मिल गया तब चुनाव संबंधी बात हो जाती थी।सच तो ये भी है कि चुनाव के समय में पूरे देश में कोरोना अपने चरम पर था।ऐसे में बाहर निकलने में रिस्क़ तो था ही। खैर, तो मैं ऐसे ही एक मित्र के किराना दुकान पर बैठा हुआ था।तब ही एक बुजुर्ग औरत आयी,उम्र तकरीबन साठ-सत्तर के आसपास होगा।दुकानदार से सत्तु खरीद रही थी।समय तकरीबन दिन के एक बजे रहे थे।उसी समय चुनाव  प्रचार में निकले भाजपा की गाड़ी आगई। बुजुर्ग महिला गाड़ी को देखते ही बोलने लगी 'नेता सब खाली वोट लेवेला आवेला केहू ग़रीब के कुछ ना देवेला।आज हम दो दिन से भूखे बानी लेकिन केहू नेता हमरा से हाल चाल भी ना पूछे ला।गरीब के केहू करेवाला नइखे।अब आओ ना लोग तब बिना पैसा लेके ना देम।' मुझे बड़ा आश्चर्य लगा कि एक बुजुर्ग महिला वोट पैसे से देने की बात कर रही थी।फिर हमने पूछना शुरु किया। वोट पैसा लेके देम का? महिला का जवाब देते हुए बोली ' एकरा पहिले वोट देनी तब हमरा चापाकल ना मिलल, राशन में नाम कट गइल कोई नेता लोग मदद ना कईल।' अगला सवाल केतना पैसा में वोट देम ? फिर महिला का जवाब था एक हजार।अगला सवाल पूछने ही वाले थे कि महिला अपना समान लेकर चली गई।

कुछ ही देर में एक दूसरी महिला आई और बिना कुछ पूछे ही बोलने लगी 'हम तs वोट मोदी के ही देम'।फिर हमने सोचा कुछ पूछते हैं तब तक वो खुद बोलने लगी 'केहू के नमक खा के नमकखरामी ना करे के।आज हमरा घर मे गेहूँ-चावल ,तेल,बिजली, पानी सब मोदिया ही देले बा.हमनी का वोट ओकरे के देम'. फिर हमने पूछा 'अरे मोदी जी इहा थोड़े खड़ा बारनs'? महिला का बोलने लगी कि 'केहू होखो लेकिन वोट हम फूल छाप के ही देम'. दरअसल बिहार में चुनावी माहौल में जहाँ भी जाइए चौक-चैराहे हर जगह चुनाव पर चर्चा होना तो लाज़मी है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

ट्वेल्थ फेल : अनुराग पाठक

 

अनुराग पाठक की किताब ‘12th फेल.. हारा वही जो लड़ा नहीं’ नियो लिट पब्लिकेशन ने छापी है।अनुराग पाठक पेशे से डिप्टी कमिश्नर हैं।इस क़िताब को 2005 बैच मनोज शर्मा पर लिखी गई है।जो महाराष्ट्र कैडर से आईपीएस हैं।इस किताब में मनोज शर्मा के पूरा जीवन की कहानी लिखी गई है।
कहानी की शुरुआत ट्वेल्थ की पढ़ाई कर रहे मनोज से होता है।जो हर रोज खुद केलिए नहीं आस पास को दिखाने पढ़ता था।मैथ भी बोल कर पढ़ता था ताकि लोगों को यह पता चले कि मनोज पढ़ रहा है।पर ऐसे पढ़ने के कारण ही ट्वेल्थ फेल कर जाता है।इसके बात से ही उसकी जिंदगी में कैसे बदलाव आते हैं? क्या क्या परेशानियां एक गरीब परिवार के बच्चों को आती है? एक ग़रीब परिवार का लड़का कुत्तों को  घूमने का काम करते हुए कैसे आईपीएस का सफर तय करता है? कैसा रहा सफर टेम्पू चलाने से लेकर आईपीएस तक का यह जानने केलिए अनुराग पाठक की 'टवेल्थ फेल' (12th fail) को पढ़ना चाहिए।



बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

बेतुका बयान

अपने खून-पसीने से तैयार की गई फसल को क्या कोई किसान आग लगा सकता है? शायद कभी नहीं। कोई भी किसान बिना सोचे समझे ऐसा नहीं कर सकता है।क्योंकि वह अच्छी तरह से जानता है कि एक फसल को तैयार करने में कितना मेहनत और समय लगता है।हाँ पशुओं को चारा के रूप में खिला सकता है या फिर उसे मिट्टी में नष्ट कर सकता।परंतु जलाना तो शायद किसान नहीं कर सकता है।ऐसे में किसानों के नेता राकेश टिकैत का कहना कि किसान अपने फसलों में आग लगा देंगे, बिल्कुल सही नहीं है।यह बयान काफी आपत्तिजनक एवं हानिकारक बयान है। उन्हें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए कि वो एक किसान नेता हैं और एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व कर रहें हैं।ऐसे में उनके एक-एक बयान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।इस तरह से बेतुका बयान देने की बजाय उन्हें अपने साथियों के साथ मिलकर लोकतांत्रिक तरीके से अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

रुकतापुर : पुष्यमित्र

 

रुकतापुर' , घुमंतू पत्रकार पुष्यमित्र द्वारा रचित पुस्तक में बिहार के 73 वर्षों का लेख-जोखा है।इस किताब को एक पत्रकार की डायरी कह सकते हैं।जिसमें पुष्यमित्र के द्वारा आँखों देखी घटनाओं को तथ्यपरक विश्लेषण किया गया है।पुष्यमित्र ने  पूरी कहानी एक रिपोर्टर के अंदाज़ में ही लिखी है-
पुष्यमित्र पहले रेलों की ख़बर लेते हैं. किताब का नाम 'रुकतापुर' भी रेलवे की दुनिया से ही लिया गया है. 2015 में वे सहरसा से सुपौल जा रहे हैं. वे जिस ट्रेन में बैठे हैं, वह राघोपुर तक जाती है. बुलेट ट्रेन की कल्पना और चर्चा के इस ज़माने में इस ट्रेन को सहरसा से राघोपुर की 63 किलोमीटर की दूरी तय करने में चार घंटे लगते हैं- यानी 16 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार. मैदानी इलाक़ों में इतनी धीमी ट्रेन शायद ही दुनिया के किसी हिस्से में हो. पता चलता है, यह ट्रेन कहीं भी रोक ली जाती है. ऐसा ही एक स्टेशन है- मुक्तापुर, जिसकी तर्ज पर लोगों ने रुकतापुर बना लिया- यानी जहां भी ट्रेन रोक दी जाए- वह रुकतापुर स्टेशन है.ट्रेनों की कहानी को पुष्यमित्र बिल्कुल पटना तक ले आते हैं. 2018 तक पटना के हड़ताली मोड़ से चलने वाली एक ट्रेन का ज़िक्र बिल्कुल हैरान करने वाला है. जिसने वाकई वह ट्रेन चलती नहीं देखी है, उसके लिए यक़ीन करना मुश्किल होगा कि बीच पटना से ऐसी ट्रेन भी गुज़रा करती थी जिसे लोगों को सड़क से हटाने के लिए हॉर्न बजाना पड़ता था और कभी-कभी पटरी से लगी किसी गाड़ी के हटाए जाने का इंतज़ार करना पड़ता था. वे इस बात को पहचानते हैं कि बिहार में ट्रेनें बस मज़दूरों को ढोने और बाहर से पूजा के अवसरों पर घर लाने का काम कर रही हैं.

2019 में पूरे देश की नज़रें मुज़फ़्फ़रपुर की तरफ तब जा मुड़ी थी जब वहां इंसेफेलाइटिस यानी चमकी बुखार से बच्चों की मौत की खबरें सामने आ रही थी. लेखक ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक साफ दृष्टि देने का काम किताब में किया है. जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पतालों तक की कमी है और डॉक्टर तो डिबिया लेकर घूमने पर भी नहीं मिलेगा.


आंकड़ों का हवाला देकर लेखक बताता है, ‘राज्य सरकार ने जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जानकारी दी थी कि उनके राज्य में डॉक्टरों के 57 फीसदी पद और नर्सों के 71 फीसदी पद रिक्त हैं.’

इससे साफ समझा जा सकता है कि प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं का आखिर हाल कैसा होगा. कोरोना काल का ही जिक्र करें तो हमारे सामने ऐसी कई तस्वीरें आई थी जहां अस्पतालों में डॉक्टर नहीं है और स्टाफ की भारी कमी का सामना लोगों को अपनी जान गंवा कर करना पड़ा. ये भी विडंबना ही कही जाएगी कि महामारी के दौरान ही राज्य में कई बार स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को बदलना पड़ गया.

बिहार में महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. एक तरफ तो वो शोषण का शिकार होती हैं वहीं सामाजिक दंश को भी झेलती हैं. लेखक उन प्रसंगों का ज़िक्र करता है जहां उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आकर लोग प्रदेश की बेटियों से शादी करते हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई दिल-दहलाने वाली है. उन प्रदेशों में उनके साथ काफी खराब बर्ताव होता है और तस्करी का पूरा रैकेट काम करता है. लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि प्रदेश की महिलाओं की शादियां भी नहीं होती हैं जिसके कारण जीवन काटना उनके लिए दूभर हो जाता है.

रोज़गार के सवाल पर भी प्रदेश की स्थिति काफी खराब है. प्रवास इस राज्य की हकीकत बन गई है. राज्य में नए उद्योग लग नहीं रहे हैं और जो पहले से हैं उनकी उतनी क्षमता नहीं है कि वो लोगों को रोज़गार दे सके. इसलिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे राज्यों की तरफ लोगों को रोजगार की तलाश में जाना ही पड़ता है.

बिहार की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. रेलवे,बेरोजगारी,गरीबी, स्वास्थ्य, देहव्यापार, बाल विवाह, बिजली ,बाढ़,पानी जैसे तमाम समस्याओं का लेखा-जोखा  अपने कलमों के माध्यम से  उजागर करने का प्रयास किया है।कुल मिलाकर यह किताब कड़वाहट भरा तो है ही दर्द भरा भी है।बिहार के  तमाम घटनाओं को जानने समझने के लिए इस किताब को पढ़ सकते हैं।जो सरकार और बिहार की जमीनी हकीकत को बतलाती है।इस किताब (रुकतापुर) को राजकमल  प्रकाशन ने छापा है।



जनता पस्त , सरकार मस्त

 जो लोग कल तक पेट्रोल-डीजल और गैसों की महंगाई पर साइकिल और गैस सिलेंडर लेकर बाहर निकल जाते थे।वो आज कल चुप्पी साधे हुए हैं।उनके लिए ये महंगाई देशहित है।वो ये बताने में पुर जोर तरीके से जुट गए हैं कि देश के राजस्व में वृद्धि हो रही है।जब 2014 में मोदी सरकार सत्ता में आयी तब लोगों को उम्मीद थी कि महंगाई पर लगाम लगेगी।क्योंकि तत्कालीन विपक्ष में बैठे नेताओं का अहम मुद्दा था "बहुत हुई महंगाई की मार,अबकी बार मोदी सरकार"।नोटबन्दी के बाद प्रधानमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 2014 से पहले हेडलाइन बनती थी महंगाई, लेकिन अब कोई मुद्दा नहीं है।पर,आज पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहें हैं और गैस की कीमत घर में आग लगा रही है।सच्चाई तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत में कोई खास वृद्धि नहीं हुआ है लेकिन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों मिलकर एक्साइज ड्यूटी और टैक्स लगा कर अपनी अपनी तिजोरी भरने में लगी है।इधर महंगाई आम जनमानस की कमर तोड़ने में लगी है।महंगाई के अनुपात में लोगों की आमदनी भी बढ़ती तो कुछ हद तक जायज होता।लेकिन यहां जनता पस्त और सरकार मस्त हो चुकी है।

आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस सरकार की बुनियाद ही महंगाई थी वो आज महंगाई पर चुप्पी साधे हुए  कैसे बैठ सकती है।यह अपने आप में  हास्यास्पद लगता है।




अतिक्रमण

शहर की प्रमुख सड़कों पर अतिक्रमण के कारण आए दिन जाम लग रहा है। नगर पालिका प्रशासन व अन्य जिम्मेदार तमाम प्रयासों के बाद भी शहर की प्रमुख सड़कों से अतिक्रमण हटवाकर जाम की समस्या का निराकरण नहीं करा पा रहे हैं। इसका खामियाजा शहरवासियों को जाम में फंसकर भुगतना पड़ता है।हालांकि समय-समय पर अतिक्रमण हटाने के लिए कार्रवाई भी की जाती है लेकिन उसके कुछ दिन बाद उन स्थानों पर अतिक्रमण फिर से हो जाता है।कहीं-कहीं दुकानों के आगे ठेले वालों ने मार्ग को घेर रखा है. साथ ही कस्बे के मुख्य चौराहे पर डग्गामार वाहनों और टेंपो वालों का कब्जा रहता है. इसके कारण यहां से एक गुजरने वाले वाहनों को घंटों जाम से जूझना पड़ता है. इस कारण आए दिन कोई न कोई घटना होती रहती है. आलम यह है कि एंबुलेंस तक जाम में फंस रह जाती है लेकिन प्रशासन का इस तरफ कोई ध्यान नहीं है. अब प्रशासन से मांग  है कि जल्द ही शहर को अतिक्रमणमुक्त किया जाए. ताकि जाम के झाम से लोगों को निजात मिल सके.

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

स्वच्छता मिशन की हकीकत

  2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत मिशन देश भर में व्यापक तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में शुरू किया गया था।साथ ही केंद्र सरकार ने 2 अक्टूबर 2019 तक खुले में शौंच मुक्त  भारत को हासिल करने का लक्ष्य रखा था और महात्मा गांधी के जन्म की 150 वीं वर्षगांठ तक ग्रामीण भारत में 1.96 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित लागत के 1.2 करोड़ शौचालयों का निर्माण करने का भी लक्ष्य रखा गया था।जिसे सरकारी आंकड़ों के अनुसार पूरा भी किया जा चुका है।सरकारी योजनाएं कोई भी हो भ्रष्टाचारी अधिकारी कर्मचारी उसमें पैसे कमाने का तरीका खोज ही लेते है। इसी तरह से स्वच्छ भारत अभियान में पैसे कमाने के लिए अधिकारियों ने अनोखे जुगाड़ बनाया। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत शौचालय निर्माण के लिए लाभार्थियों को 12-12 हजार रुपये देने के बजाय कथित तौर पर दलालों के जरिये हड़प लिए गए जा रहें।अगर जाँच हो तो मिशन के तहत बनने वाले शौचालय में लाखो का घोटाला सामने आ सकती है, एक ही शौचालय की फोटो को कई कई शौचालय की फोटो दिखाकर  योजनाओं का लाभ उठा जा चुका है।जितने भी शौचालय बनाये गए थे वो अब जर्जर हालात में पाए जा रहे हैं।फिर से लोग बाहर जाने को मजबूर हो गए।इसकी स्वतंत्र न्यायिक जांच होनी चाहिए।


शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

डार्क हॉर्स' : नीलोत्पल मृणाल

 

डार्क हॉर्स' नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास है जिसकी कहानी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है।इसकी टैग लाइन है 'एक अनकहीं दास्तां...'।
 ‘‘डार्क हॉर्स’ महज एक उपन्यास भर नहीं हैबल्कि छात्र जीवन की अनगिनत अनकही कहानियों का संग्रह हैजो सभी छात्रों के जीवन से ताल्लुक रखता है।खासकर वैसे छात्र जो मुखर्जीनगर में जाकर सिविल सर्विस की तैयारी कर रहें होते हैं।

'डार्क हॉर्स’ का मुख्य किरदार संतोष बिहार के भागलपुर से सिविल सर्विस की तैयारी के लिए दिल्ली आता है। उत्तर प्रदेशबिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों से सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए लड़के या तो इलाहाबाद का रुख करते हैं या तो दिल्ली का। खास तौर से हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाले लड़कों के लिए ये दो जगहें ही महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। जो थोड़े कमजोर घर से होते हैंवे इलाहाबाद रह कर तैयारी करते हैंऔर जो थोड़े साधन-संपन्न होते हैंवे दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपना ठीकाना बनाते हैं।
‘जेतना दिन में लोग एमए - पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा।’  नीलोत्पल मृणाल की यह लाइन काफी अच्छी लगी ,प्रभावशाली भी।साथ ही सिविल सर्विस के तैयारी कर रहे हैं उन छात्रों के लिए है जो बिहार- यूपी से तमाम ख़्वाब लेकर दिल्ली, इलाहाबाद जाते हैं।
इस उपन्यास को पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि हम स्वयं मुखर्जीनगर के उन गलियारों में घूम रहे हैं जहाँ के हर-गली,मोहल्ला सिविल सर्विसेज के छात्रों से भरा पड़ा रहता है।जहां सबके जुबान पर भोजपुरिया टोन के माहौल देखने को मिलता है।यह भी नजर आता है कि छात्र किस तरह से खुद को माहौल के अनुसार समझौता कर लेता है।
इस किताब में सिर्फ सिविल सर्विस के तैयारी ही छात्रों की कहानी ही नहीं, बल्कि उनके गांव - शहर,संस्कृति, भाषा ,रहन-सहन, खानपान से लेकर उनके विचारों को दिखाने का प्रयास किया है। 'नीलोत्पल मृणाल' ने। 

दिल्ली के मुखर्जीनगर से लेकर यूपी-बिहार  गांवो का सफर करना चाहते या सिविल सर्विस के तैयारी कर रहें छात्रों के जीवंत घटनाओं से परिचय होना चाहते हैं तो 'डार्क हॉर्स' पढ़ सकते हैं।



गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

नल जल योजना के हकीकत

 जिस तरह से बिहार में कोरोना टेस्टिंग के घोटाले सामने आ रहे हैं उस तरह से नल जल योजना भी सवालों के घेरे में है।हर घर नल का जल योजना की शुरूआत 2017 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की थी। लेकिन तीन वर्ष बाद भी योजना पूर्ण नहीं हो पाया है। इसके साथ ही कई जगहों पर तमाम घोटाले देखने को मिल रहे हैं।सरकार सिर्फ यह प्रचार करने में लगी रहती है कि हमने नलजल योजना के माध्यम से हर घर पानी पहुँचाने में सफल रहें।लेकिन क्या सरकार कोई सर्वे करा पाई है,क्या कोई डाटा है सरकार के पास ,इस योजना के अंतर्गत कितने लोग पानी का इस्तेमाल कर रहें हैं या नहीं? कई ऐसे जगह देखने को मिल रहा है जहां देखने केलिए टंकी लगा दिया गया है लेकिन पानी आज तक किसी के घर पहुँच नहीं पाया।कई ऐसे जगह है जहां कार्य शुरू होकर भी आज तक समाप्त नहीं हो पाया है।कई ऐसे जगह है जहाँ सिर्फ उदघाटन  होने के साथ पानी पहुँचना शुरू तो हुआ लेकिन उसके बाद आज तक लोग तरस रहे हैं पानी के लिए।कई वार्ड ऐसे हैं, जहां योजना पूरा कर लिया गया है, लेकिन हर घर तक पानी नहीं पहुंच पाया है।आये दिन इन योजना में घोटाले सामने आरहे हैं।




बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

महंगाई की मार

 कोरोना काल में आम आदमी की जेब तो ऐसे ही ढ़ीली पड़ गई है।अब ये महंगाई आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है।पिछले कुछ दिनों से लगातार पेट्रोल, डीज़ल और गैसों के दाम में बढ़ोतरी हो रही जिसे आम आदमी महंगाई के बोझ तले दबता चले जा रहा है।

एक तरफ पेट्रोल कुछ शहरों में शतक लगा चुका है ,दूसरी तरफ गैसों के दाम में आए दिन बढ़ोतरी की जा रही है।अगर ऐसे ही गैसों के दाम बढ़ते रहे तो आम आदमी फिर से जीवाश्म ईंधन प्रयोग करने केलिए मजबूर हो जाएंगे।

पिछले 10 दिनों के भीतर  रसोई गैस के सिलेंडर में 75 रुपये की बढ़ोतरी की गई है।यही नहीं, दो महीने के भीतर सिलेंडर की कीमत में 175 रुपये की वृद्धि की जा चुकी है. आज के समय में राजधानी दिल्ली में एक सिलेंडर 769 रुपये का बिक रहा है।इससे आम जन जीवन प्रभावित हो रहा है।सरकार को चाहिए कि आम आदमी के समस्याओं को समझते हुए महंगाई को कम करने का कोशिश करें।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

हिंसक होना देशहित व समाज हित कतई नहीं

 युवाओं को हिंसक गतिविधियों में शामिल होना बड़ा चिंतनीय विषय है।हाल ही में बिहार सरकार ने एक नई दिशा-निर्देश जारी की है कि हिंसक-गतिविधि में शामिल युवाओं को अनुबंध के आधार पर सरकारी नौकरी में शामिल नहीं की जायेगी।सरकार चाहती है कि हमारे युवा हिंसक न हो।बेशक हिंसक होना देशहित व समाजहित में कतई नहीं है।लेकिन सरकार के इस नियमावली में एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि अगर युवा जायज मांग केलिए आंदोलन-प्रदर्शन कर रहें हो और कुछ असामाजिक तत्वों के लोग आंदोलन को हिंसक रूप में परिवर्तित कर दें तब क्या होगा? ज्यादातर देखा गया है कि हिंसक आंदोलन में निर्दोष लोग ही फंस जाते हैं।पुलिस की क्या भूमिका रहती है इसे कहने की जरूरत नहीं है?राजनीतिक दलों की क्या भूमिका रहती है यह भी कहने की जरूरत नहीं है?

गंभीर आपराधिक रूप से लिपटे लोगों के लिए तो पहले से ही कानून थे लेकिन अब हिंसा में शामिल लोगों केलिए यह प्रावधान लाई जा रही है।ताकि युवा इस डर से सरकार के विरोध में कोई आंदोलन न करें।
लेकिन ये प्रावधान तो सिर्फ युवाओं के लिए है तो क्या सरकार उन नेताओं पर अंकुश लगाएगी जो किसी राजनीतिक आंदोलन को हिंसक रूप देते हैं? क्या उन नेताओं के लिए चुनाव न लड़ने का कोई प्रावधान ला सकती है? 



बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

पत्रकारिता का संकट

सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पत्रकारों पर कार्रवाई को लेकर इन दिनों लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं।अभी खबरें आ रही है कि न्यूज़क्लिक के ऑफिस में ईडी ने छापा मारा है।  हाल ही में सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन को कवर कर रहे पत्रकार मनदीप पूनिया को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। इसका भी सोशल मीडिया पर जोरदार विरोध हुआ था। इसके बाद दिल्ली की एक अदालत ने पूनिया को जमानत दे दी थी। 
किसान आंदोलन से जुड़ी ख़बरों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार राजदीप ,मृणाल पाण्डेय, कांग्रेस सांसद शशि थरूर सहित पत्रकार परेश नाथ, अनंत नाथ और विनोद के जोस के ख़िलाफ़ दिल्ली, नोएडा में एफ़आईआर हो चुकी है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर सरकार की खासी आलोचना हो रही है। 
हालांकि मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए छह पत्रकारों और कांग्रेस सांसद शशि थरूर को बड़ी राहत दी है। अदालत ने कहा है कि अगले आदेश तक इन लोगों को गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता है। 


मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

विपक्ष का संकट

 

एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी समझा जाता है. विपक्ष सरकार के कार्यों और नीतियों पर सवाल उठाता है और उसे निरंकुश होने से रोकता है.



संसद में अगर विपक्ष कमज़ोर होता है तो मनमाने तरीके से सत्ता पक्ष कानून बना सकता है और सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी बहस मज़बूत विपक्ष के बिना संभव नहीं है.लेकिन मौजूदा वक्त में वही विपक्ष अगर सवाल करता है तो बड़ा हास्यास्पद लगता है।क्या आप के पास कोई आकड़ा है कि किसान आंदोलन में अभी तक कितने किसानों ने खुदख़ुशी की है?तब सरकार का जवाब आता है नहीं हमारे पास कोई आकड़ा नहीं है।यहां तक मौजूदा वक्त में विपक्ष के साथ कैसा बर्ताव किया जा रहा है चाहे वो सकारात्मक सवाल क्यों न उठा रहा हो लेकिन सत्ता पक्ष जवाब देने के बजाए नकारात्मक साबित करने केलिए एक अलग माहौल चला देती है।

दरअसल बीते अस्सी दिनों से चल रहे आंदोलन में लगभग दो सौ से अधिक किसानों की जाने जा चुकी है।लेकिन सरकार के पास कोई आकड़ा नहीं है।यह आंदोलन एक बड़ा सवाल खड़ा कर रही है।अगर किसान बिल किसानों के हित में है तो क्यों आज तक मोदी सरकार किसानों को समझाने में नाकाम रही है?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

कांग्रेस का संकट

 देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव लगातार चर्चा का विषय बनते जा रहा है।पहले बताया गया था कि मई में चुनाव होगा परंतु अब जून में होगी।भले ही अब जून में  होगा लेकिन क्या पता जून में होगा भी या नहीं ये कहना मुश्किल है।क्योंकि जिस प्रकार से नेतृत्व कांग्रेस कर रही है ये विचारणीय तो है ही।लगातार कांग्रेस कमजोर होती नजर आ रही है।हाल ही में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद राहुल गांधी ने यह कहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था कि अब गांधी परिवार से बाहर से कोई अध्यक्ष पद केलिए चयनित होगा।लेकिन आखिर में फिर से सोनिया गांधी को बना दिया गया।उसके बाद भी माना जा रहा था कि यह चुनाव कुछ समय केलिए ही की गई है,पर अब एक साल से ज्यादा हो चुकी है लेकिन अब तक कुछ हुआ नहीं।यह सत्य भी है कि राहुल गांधी अध्यक्ष पद पर न रहते हुए भी पार्टी का फैसला लेते रहें हैं।जब राहुल गांधी के निशाने पर सीधा प्रधानमंत्री मोदी होते हैं तब कांग्रेस अपने ही नेता अपने ही से लड़ रहे होते हैं।चाहे वो मध्यप्रदेश में कमलनाथ और सिंधिया हो या फिर राजस्थान में गहलोत और पायलट हों।  पिछले कुछ सालों में देख गया है कि पार्टी अपने किसी एक स्टैंड पर खड़ी नहीं होती है।हाल ही में  कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल समेत कई नेताओं ने पार्टी नेतृत्व पर सवाल खड़ा कर चुके हैं।


मेरा मानना है कि कांग्रेस मतलब गांधी परिवार पार्टी के ही कुछ चाटुकारों से घिर गया है।ये चाटूकार अपने स्वार्थ केलिए गाँधी परिवार की चमचागिरी करते रहते हैं।यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि पार्टी के सदस्यगण खुद फैसला लेने के बजाए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर छोड़ देते हैं।तब यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सोनिया गांधी अपनी  पार्टी के अंदरूनी मामला को सुलझा पायेगी? यह कहना भी मुश्किल है कि कब कांग्रेस नेतृत्व अपने को मजबूत कर पाएगी और अध्यक्ष पद का चुनाव कब तक करेगी ?

समस्या यह नहीं है कि हर फैसला सोनिया गांधी के नाम पर टाला जा रहा है बल्कि यह है कि उन मुद्दों पर कहीं कोई समाधान निकलता नहीं दिख रहा है।

कांग्रेस केलिए बेहतर होगा कि नेतृत्व को मजबूत करें और यही भी समझे कि इन सबका जिम्मेदार वह स्वयं खुद है।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

डायरी -3

 प्यार हमारा अमर रहेगा याद करेगा जहान

तु मुमताज हैं मेरे ख्वाबो की मै तेरा शाहेजहा


ये गीत जब भी सुनता हूँ।सबसे पहले तुम्हारा ही ख्याल आता है।आज भी मैं तुम्हारी  ही आवाज में सुनना पसंद करता हूँ।अरे आज कल  तो पहले से ज्यादा सुनने लगा हूँ।

पता नहीं मुझे , तुम्हें याद है या ये भी भूल गई।पर मैं तो चाह कर भी नहीं भूल सकता हूँ।

चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते हर वक्त याद आती रहती  हो।तुम में क्या बात है, वो मैं भी नहीं जानता, लेकिन तुम  में कुछ न कुछ तो जरूर है।इसलिए तो चाह कर भी नहीं भूल पाता हूँ।

मानता हूं अब सिर्फ औपचारिकता ही रह गया है।अब पहले जैसा कुछ नहीं पर मैंने हर वो पल को बचा रखी है जो कभी हमने महसूस किए थे।

जब तक हम एक थे तब तक बिना एक दूसरे का हाल जाने बगैर चैन से न रह पाते थे।पर अब तो ऐसा कुछ न होता है।नाराजगी तो उस वक्त भी होती थी पर रूठना मनाना तो अहम हिस्सा था।

सच पूछो तो मैंने कभी सोचा नहीं था कि इतनी छोटी वक्त के लिये आओगी।

सच में ये उम्मीद भी कितनी अजीब है नlसब जानते हुए भी एक उम्मीद बची है कि सब कुछ पहले जैसा हो जाने की उम्मीद।घण्टों बात करने की उम्मीद,फिर से वही फ़ोन कॉल की उम्मीद।उम्मीद है लौट आने की।पर ये उम्मीद तो हर रोज टूटी है फिर पता न ये उम्मीद होती क्यों है?


शनिवार, 30 जनवरी 2021

गांधी से महात्मा गांधी का सफर

 

महात्मा गाँधी की पुण्य तिथि पर शहीद दिवस हर वर्ष 30 जनवरी को मनाया जाता है। 30 जनवरी, 1948 का ही वह दिन था, जब शाम की प्रार्थना के दौरान सूर्यास्त के पहले महात्मा गाँधी पर हमला किया गया था। वे भारत के महान् स्वतंत्रता सेनानी थे और लाखों शहीदों के बीच में महान् देशभक्त के रूप में गिने जाते थे। भारत की आजादी, विकास और लोक कल्याण के लिये वे अपने पूरे जीवन भर कड़ा संघर्ष करते रहे। 30 जनवरी को नाथूराम गोड़से ने महात्मा गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, जिसके कारण यह दिन भारत सरकार द्वारा शहीद दिवस के रूप में घोषित किया गया है। तब से, महात्मा गाँधी को श्रद्धंजलि देने के लिये हर वर्ष 30 जनवरी को शहीद दिवस मनाया जाता है। 30 जनवरी, 1948 देश के लिये सबसे दु:ख का दिन है, जो भारतीय इतिहास के लिये सबसे जहरीला दिन बन गया था। गांधी स्मृति वह जगह है, जहाँ शाम की प्रार्थना के दौरान बिरला हाऊस में 78 वर्ष की उम्र में महात्मा गाँधी की हत्या हुई थी।

"पाँच फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चोरा नामक स्थान पर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह से पुलिसकर्मियों की भिड़ंत हो गई थी।जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी थी जिसके कारण बाईस पुलिसकर्मी और तीन नागरिक मारे गए थे।हिंसा की इस घटना से व्यथित होकर गांधी जी ने अपने ‘असहयोग आंदोलन’ को रोक दिया था।पर उन्होंने अपनी माँगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष पर विराम नहीं लगाया; उसमें बड़ा संशोधन कर दिया।



गांधी ने अपनी रणनीति पर विचार पुनर्विचार किया। दो साल बाद 12 मार्च 1930 को ‘नमक सत्याग्रह’ के सिलसिले में जब अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से चौबीस दिनों के लिए 378 किलो मीटर दूर दांडी तक यात्रा निकाली तो उसमें सिर्फ़ अस्सी अहिंसक सत्याग्रही थे। एक-एक व्यक्ति का चयन गांधी ने स्वयं किया था और उसमें समूचे भारत का प्रतिनिधित्व था।ज़्यादातर सत्याग्रहियों की उम्र सोलह से पच्चीस वर्ष के बीच थी। छह अप्रैल 1930 को जब गांधी ने दांडी पहुँचकर नमक का कानून तोड़ा तो अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई थी।"

जब महात्मा गाँधी चम्पारण पहुँचे तो उन्होंने पाया कि वहां हजारों भूमिहीन एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील की फसलों की खेती करने के लिये बाध्य हो रहे थे. नील की खेती करने वाले किसानों पर अंग्रेज़ों के अलावा कुछ बगान मालिक भी जुल्म ढा रहे थे. चम्पारण के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था जिसके अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था जिसे  'तिनकठिया पद्धति' कहते थे.

यहीं से मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के तौर पर पहचान मिला तथा चम्पारण सत्याग्रह को भारत की आज़ादी के इतिहास का मील का पत्थर माना जाने लगा. कहा तो ये भी जाता है कि इसी आंदोलन से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा" नाम से संबोधित किया था और तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे थे.



जब महात्मा गाँधी 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुँचे थे तब पूरे महात्मा गांधी, चम्पारण, बिहार में किसानों के भीतर आत्म-विश्वास का जबर्दस्त संचार हुआ था जिसके कारण गांधीजी को धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने के प्रयास की नोटिस भेजी गई थी. लेकिन इसका कुछ भी असर उन पर नहीं पड़ा बल्कि उनका कद और ख्याति बढ़ती ही चली गई. अब मार्च 1918 आते-आते 'चंपारण एगरेरियन बिल' पर गवर्नर-जनरल के हस्ताक्षर के साथ तीनकठिया समेत कृषि संबंधी अन्य अवैध कानून भी समाप्त हो गए थे.  मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा 1917 में संचालित यह सत्याग्रह भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी. गांधीजी की अगुवाई वाले इस आंदोलन से न सिर्फ नील के किसानों की समस्याओं का फौरन हल हुआ था, बल्कि सत्य, अहिंसा और प्रेम के संदेश ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारतीयों को एकजुट भी किया था.

बुधवार, 13 जनवरी 2021

युवाओं के प्रेरणा स्रोत रहे हैं स्वामी विवेकानंद

 

स्वामी विवेकानंद जी की जन्मतिथि को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में हमारे देश में मनाया जाता है। वो युवाओं के लिए सच्चे आदर्श हैं। वे कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं और आगे भी रहेंगे। 1984 में भारत सरकार ने स्वामी विवेकानंद जयंती पर इसे मनाने की घोषणा की थी। प्रेरणा के अपार स्रोत रहे और आज भी युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद की कही एक-एक बात ऊर्जा से भर देती है। अपने छोटे से जीवन में ही उन्होंने पूरे दुनिया पर भारत और हिंदुत्व की गहरी छाप छोड़ी। शिकागो में दिया गया भाषण आज भी गर्व से भर देता है। विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था. उन्होंने शिकागो में अपने भाषण से सभी आश्चर्यचकित किया था. इसके बाद अमेरिका और यूरोप में भारतीय वेदांत दर्शन के प्रति दिलचस्पी जगने लगी थी.
शिकागो सम्मेलन में उन्हें 02 मिनट का ही समय दिया गया था लेकिन जब उन्होंने भाषण की शुरुआत "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" से की, तो इस संबोधन ने सबका दिल जीत लिया. इसके बाद उनके संबोधन के दौरान ना केवल खूब तालियां बजीं बल्कि उनकी बातों को बहुत ध्यान से सुना गया.इनके विचार आज भी जोश भर देता है।



'उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये।'

'उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो।'

'जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएं अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा भगवान तक जाता  है।'

12 जनवरी, 1863 एक बंगाली परिवार में उनका जन्म हुआ, नाम रखा गया नरेंद्रनाथ दत्ता। वो अपनी माँ की सात संतानों में से एक थे। बचपन से ही, नरेंद्रनाथ बहुत ही तीव्र बुद्धि के धनी थे, पढ़ाई लिखाई में हमेशा अच्छे थे। अपने शुरूआती जीवन में वो अंग्रेज़ी भाषा पढने लिखने से परहेज़ करते थे, ऐसा इसलिए क्यूंकि उनको लगता था कि अंग्रेज़ी ब्रिटिश वासियों की भाषा है। लेकिन बाद में  उनको यह भाषा सीखनी पड़ी क्यूंकि यह उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। वो अन्य दुसरे विषय जैसे खेलकूद, संगीत,  कुश्ती इत्यादि में भी काफ़ी आनंद लिया करते थे।उन्होंने कलकत्ता के एक कॉलेज से दार्शनिक शास्त्र में स्नात्कोत्तर कि उपाधि प्राप्त की, उसके बाद आगे चलकर वो दार्शनिक शास्त्र के बड़े शास्त्री बने। उनकी शिक्षा का धर्म, श्रद्धा, विद्या, अध्यात्म और मानवतावाद पर अधिक ज़ोर होता था। वो अपने गुरु, रामकृष्ण परमहंसजी के ज्ञान को आगे फ़ैलाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े।आगे चलकर, नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद के नाम से पहचाने जाने लगे। उनके बहुत के कामों के अलावा ब्रम्हो समाज और रामकृष्ण मिशन के सामाजिक कार्यों को लेकर, विभिन्न धर्मों में मैत्री भाव, दुःख और दरिद्रता को दूर करना ही उनके जीवन का लक्ष्य था

स्वामी विवेकानंद का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का युवा जागरूक और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित हो, तो वह देश किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। युवाओं को सफलता के लिये समर्पण भाव को बढ़ाना होगा तथा भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार रहना होगा, विवेकानंद युवाओं को आध्यात्मिक बल के साथ-साथ शारीरिक बल में वृद्धि करने के लिये भी प्रेरित करते हैं।

सोमवार, 11 जनवरी 2021

जननी है वो

 एक औरत है वो

सहनशील है वो 

क्षमाशील है वो

जननी   है   वो

भगिनी  है  वो

हर पल एक नई

भूमिका अपनाती है वो

पूज्यनीय  नारी   है वो



जीवन के हर मोड़ पर साथ देती

आदर्श  पत्नी है वो

शक्ति है वो

प्रेरणा है वो

सृष्टि के रचनाकार है वो

क्योंकि खुद में ही सम्पूर्ण

नारी है वो।

रविवार, 10 जनवरी 2021

नारी हूँ मैं

 अबला नहीं

नारी हूँ मैं,

दुर्गा का स्वरूप हूँ मैं

ममता की छांव हूँ मैं

मां-बाप की शान हूँ मैं

बेटी हूँ मैं

पापा की प्यारी हूँ मैं

माता की दुलारी हूँ मैं

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।


फिर क्यों जन्म से पहले

मार दी जाती हूं मैं?

मां, बहन, बेटी और पत्नी भी हूँ मैं

फिर क्यों संसार में

बलात्कारियों के सर चढ़ी जाती हूँ मैं?

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।


जननी हूँ मैं

न जाने कितने युगों से पीड़ित हूँ मैं

फिर भी जीवित हूँ मैं

क्योंकि जीवन का आधार हूँ मैं?

अबला नहीं

नारी हूँ मैं।

      -@अरुणेश✍️



शनिवार, 9 जनवरी 2021

जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917

 

घुमन्तू पत्रकार एवं लेखक पुष्यमित्र ने ‘जब नील का दाग मिटा: चम्पारण 1917’ नामक किताब में चम्पारण से कलकत्ता तक फैले नील किसानों की बेहद मार्मिक दास्तान और उसके संघर्षपूर्ण इतिहास को बताने की कोशिश की है।इसमें यह भी बताने की कोशिश की है किस तरह मोहनदास करमचन्द गाँधी को महात्मा गाँधी बनाने में चम्पारण के सत्याग्रह की अहम भूमिका थी।
पुष्यमित्र ने नील से किसानों की समस्याओं और उनके बीच से उपजे गाँधी के स्वतंत्रता आंदोलन की हकीकत को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।


मैं अदालत में गया तो कलक्टर ने मुझे आवेदन देने को कहा। मैंने कहा कि कृपया खुद निरीक्षण कर लीजिए, बात गलत साबित हो तो मुझे सजा दीजिएगा। मगर वे राजी नहीं हुए। मैंने कहा कि एक बार आवेदन देने की सजा मैं 21 दिनों तक जेल में भुगत चुका हूं, अब दूसरा आवेदन देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। इसके बावजूद वे नहीं पसीजे।’

‘चम्पारण का तो यही इतिहास है।’

मोहनदास करमचन्द गाँधी नीलहे अंग्रेज़ों के अकल्पनीय अत्याचारों से पीड़ित चम्पारण के किसानों का दुख-दर्द राजकुमार शुक्ल से सुनकर उनकी मदद करने के इरादे से वहाँ गए थे। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, महसूस किया वह शोषण और पराधीनता की पराकाष्ठा थी, जबकि इसके प्रतिकार में उन्होंने जो कदम उठाया वह अधिकार प्राप्ति के लिए किए जानेवाले पारम्परिक संघर्ष से आगे बढ़कर ‘सत्याग्रह’ के रुप में सामने आया। अहिंसा उसकी बुनियाद थी। सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह का प्रयोग गाँधी हालांकि दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन भारत में इसका पहला प्रयोग उन्होंने चम्पारण में ही किया। यह सफल भी रहा। चम्पारण के किसानों को नील की जबरिया खेती से मुक्ति मिल गई, लेकिन यह कोई आसान लड़ाई नहीं थी। नीलहों के अत्याचार से किसानों की मुक्ति के साथ-साथ स्वराज प्राप्ति की दिशा में एक नए प्रस्थान की शुरुआत भी गाँधी ने यहीं से की।

इस किताब में महात्मा गांधी को चंपारण लाने में  राजकुमार शुक्ला की किस तरह की भूमिका रही है उसको बताने की कोशिश की है।किस प्रकार से शुक्ल के मित्र वकील ब्रजकिशोर प्रसाद के प्रयास से गाँधी जी तक पहुंचने में भी उन्हें महीनों पापड़ बेलने पड़े थे।कैसे गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक आदि नेताओं ने सब कुछ जानते हुए भी राजकुमार शुक्ल की बातों को अनदेखा किया था।इस किताब में अनेक ऐसे लोगों के चेहरे दिखलाई पड़ते हैं, जिनका शायद ही कही जिक्र मिलेगा वो मूल रूप से स्वतंत्रता सेनानी थे।
नील की खेती और गांधी को समझने केलिए यह किताब बेस्ट है।
यह किताब सीधी एवं सरल भाषा में लिखी गई है।हम सबको पढ़ना चाहिए।खासकर जो चंपारण, चंपारण सत्याग्रह और गांधी को समझना चाहते हैं उन्हें बिल्कुल पढ़ना चाहिए।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

बोलना ही है : रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की किताब ‘बोलना ही है’ एक ऐसी किताब है, जिसे हम सबको मतलब सभी भारतीय को पढ़ना चाहिए ।आप उनकी सोच से असहमत हो सकते हैं, उनकी शैली आपको पसंद नहीं आ सकती है, परंतु  उनकी किताब में लिखा हुआ एक-एक शब्द देश की ज़्यादतर आबादी की सोच, बोलने, बात करने और दूसरों को देखने के नज़रिये की बिल्कुल सटीक कहानी बयान करता है।किताब की भाषा बिल्कुल सरल और साधारण है।इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि पाठक को बांधे रखती है।



किताब की भूमिका ‘लिंचिंग’ की घटनाओं से होती है और नागरिक पत्रकारिता पर समाप्त होती है. पहले अध्याय ‘बोलना’ में लोकतंत्र में नागरिक के लिए बोलना कितना और क्यों जरुरी है.बोलने को लेकर नागरिक के मन में आने वाले भय के बारे में लिखते हुए वो कहते हैं-
बोलना किसी भी दौर में आसान नहीं रहा है. बोलने के लिए आपको अकेलेपन के इम्तहान से गुजरना पड़ता है. आप खुद से पूछिए कि क्या आप अकेले रह सकते हैंएक सवाल यह भी कीजिए कि क्या आप चुप रहकर चैन की नींद सो सकते हैंबोलना मुश्किल नहीं है मुश्किल है बोलने से पहले डर के सुरंग से गुजरना. यह डर हमेशा सत्ता का नहीं होता है. गलती कर जाने का भी डर होता है. बाद की प्रतिक्रियाओं का भय सताता है. डर से मुकाबला तो बोलने के बाद शुरू होता है. तब पता चलता है उसका सामना करने की हिम्मत है या नहींजब दोस्तों के फ़ोन आते हैं कि सतर्क रहा करोचुप रहा करोसमय ख़राब है.”

"9 दिसंबर 2017 को गुजरात चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के दिए गए भाषण में फेक न्यूज़ का जिक्र इस किताब में किया गया है किस प्रकार से मणिशंकर अय्यर के घर पर हुई रात्रि भोज को एक गुप्त मीटिंग का नाम देकर पाकिस्तान का गुजरात चुनाव में हस्तक्षेप की बात अपने भाषण में मोदीजी करते हैं, जिसका उद्देश्य गुजरात चुनाव के असली मुद्दों से ध्यान भटकना  है, जब फेक न्यूज़ की चर्चा या जानकारी किसी बड़े पद के व्यक्ति के द्वारा की जाती है तो जनता इसको इसी प्रकार से मानती है कि कुछ तो है। यही बात है जो फेक न्यूज़ के लिए  ईंधन का काम करती है, फेक न्यूज़ ने पहले खबरों और पत्रकारिता को फेंक किया और अब वह जनता को फेक रूप तैयार कर रहा है। फेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है। आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है। फेक न्यूज़ का एक बड़ा काम है नफरत फैलाना, फेक न्यूज़ के खतरनाक खेल में बड़े अखबार और टीवी चैनल शामिल हैं, लेकिन भारत में अब कुछ वेबसाइटों ने फेक न्यूज़ से लोहा लेना शुरू कर दिया है। लेकिन यह सब बहुत छोटे पैमाने पर हो रहा है इसकी पहुंच मुख्यधारा के मीडिया के फैलाए फेक न्यूज़ की तुलना में बहुत सीमित है। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कैबिनेट मिनिस्टर का विरोध या असहमति  दर्ज करने पर कितने ही पत्रकारों आम नागरिकों पर पुलिस केस और मानहानि केस दर्ज भारत में हो रहे हैं। इन्हीं सब तरीकों से नागरिक अधिकारों को कम करने या उनको खत्म करने की सुनियोजित तरीके से योजना सरकारों के द्वारा चल रही है।"
इस किताब में धर्म के नाम पर टेलीविज़न पर चलाये जाने वाले पाखंड पर कटाक्ष किया है।पुराने फेसबुक पोस्ट का भी उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने अलग अलग मौकों पर लिखा था।
"भीड़ और प्रोपेगेंडा का नतीजा बताया गया कि किस प्रकार से जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने  भीड़ को और प्रोपेगंडा को इस प्रकार से तैयार कर दिया था"
इस किताब के ज़रिये रवीश ने देश में मीडिया के रोल और हर दूसरे नागरिक को शक के निगाह से देखे जाने का एक स्व, जो हम सबने अपने अंदर पाल लिया है को आसपास की घटनाओं का उल्लेख कर समझाने की कोशिश की है।
कैसे मीडिया से लेकर धर्म और धर्म के ठेकेदार  व्यापार तंत्र का हिस्सा बन गए हैं, इस सिलसिले पर नज़र डालने के साथ ही, हमारे सोचने और बोलने तक को सीमित करने की साज़िश की बात भी कही गई है।

मुझे लगता है "बोलना ही है" सबको पढ़ना चाहिए।चाहे वो रवीश कुमार के विचारधारा से सहमति रखते हो या नहीं।
खासकर अगर पत्रकारिता के छात्र हैं या पत्रकारिता से तालुकात रखते हैं तो उन्हें जरूर पढ़ता चाहिए।