शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

'मैं अविवाहित हूं लेकिन कुंवारा नहीं हूं।'-वाजपेयी

 हमेशा से राजनीतिक विश्लेषकों का मानना रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी दस वर्ष पहले प्रधानमंत्री बन जाते तो आज भारत का भविष्य कुछ और रहता। 

आज देश के पूर्व पीएम और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती हैं। बीजेपी सरकार अटल बिहारी के जन्मदिवस को सुशासन दिवस के रूप में मनाती है। 

भारत के राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी का संपूर्ण व्यक्तित्व शिखर पुरुष के रूप में दर्ज है. उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद, कवि, पत्रकार व लेखक के रूप में है.जनसंघ के संस्थापकों में से एक वाजपेयी जी के राजनीतिक मूल्यों की पहचान बाद में हुई और उन्हें भाजपा सरकार में भारत रत्न से सम्मानित किया गया.



इंदिरा गांधी के खिलाफ जब विपक्ष एक हुआ और बाद में जब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो अटल जी को विदेशमंत्री बनाया गया. इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी और विदेश नीति को बुलंदियों पर पहुंचाया. बाद में 1980 में जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया. इसके बाद बनी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में वह एक थे. उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गयी. इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद संभाला. उन्होंने इंदिरा गांधी के कुछ कार्यों की तब सराहना की थी तब जब संघ उनकी विचारधारा का विरोध कर रहा था.कहा जाता है कि संसद में इंदिरा गांधी को दुर्गा की उपाधि उन्हीं की तरफ से दी गई. उन्होंने इंदिरा सरकार की तरफ से 1975 में लादे गए आपातकाल का विरोध किया. लेकिन, बंग्लादेश के निर्माण में इंदिरा गांधी की भूमिका को उन्होंने सराहा था.



वाजपेयी जी हमेशा पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते की बात करते थे।उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली-लाहौर बस सेवा की शुरुआत की थी।पहली बार बस सेवा के वो खुद गए और तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ मिलकर लाहौर दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।इस यात्रा के दौरान वे  मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए।यह वैसी जगह है जहाँ सबसे पहले पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव पास किया था।मीनार-ए-पाकिस्तान एक ऐसी जगह है जहाँ भारत के किसी भी प्रधानमंत्री  जाने का हिम्मत नहीं जुटा पाया था।



देश में दूरसंचार क्रांति और गांव-गांव में का श्रेय भी वाजपेयी जी को ही जाता है।इन्होंने ही BSNL के एकाधिकार को खत्म करके नई दूरसंचार नीति को लागू किया था।इसके चलते की देश में सस्ती कॉल दरे और मोबाईल का प्रचलन भी बढ़ा।

वाजपेयी जी ने ही सबसे पहले देश की सभी सड़को को एक सूत्र में जोड़ने का अहम फैसला लिया था।इन्होंने ने चारों महानगरों को जोड़ने केलिए स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना की शुरुआत की।

'सर्व शिक्षा अभियान' के तहत  छह से चौदह वर्ष के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का अभियान को शुरू किया।आर्थिक मोर्चे पर भी अहम योगदान दिया।


अटल बिहारी वाजपेयी आजीवन कुंवारे रहे। अक्सर विपक्ष के नेता और मीडिया उनसे यह सवाल कर ही देते थी कि आप ने शादी क्यों नहीं की ? अटल जी ने एक बार ऐसे ही बातों ही बातों में अपनी हाजिर जवाबी का परिचय देते हुए जवाब दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी से एक बार सवाल पूछा गया कि आप अब तक कुंवारे क्यों हैं ? पत्रकारों को जवाब देते हुए उन्होंने कहा था कि 'मैं अविवाहित हूं लेकिन कुंवारा नहीं हूं।'

         -अरुणेश✍️

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

बिहार के तीस वर्षों का लेखा-जोखा छपा है : गांधी मैदान

 वरिष्ठ पत्रकार व संपादक अनुरंजन झा ने अपनी पुस्तक 'गांधी मैदानः Bluff of Social Justice' में बिहार के पिछले 30 सालों का लेखा-जोखा उधेड़ने की कोशिश की है।पिछले 30 सालों में किस प्रकार की घटनाएं घटी,बिहार ने क्या पाया,क्या खोया? इन्हीं तमाम मुद्दों की चर्चा इस पुस्तक (गांधी मैदान) में की गई है।


'इस किताब की कहानी बिहार के दो मुख्यमंत्री लालू यादव और नीतीश कुमार के इर्दगिर्द घूमती है।शुरुआत होती है लालू यादव के राजनीतिक संघर्ष से,किस प्रकार लालू यादव को सत्ता मिलती है।सत्ता में काबिज होने के बाद किस प्रकार राजनीति से अपराध की दुनिया में कदम रखते हैं।किस प्रकार से लगातार एक के बाद एक घोटाले करके जेल के अंदर-बाहर हो रहे थे।'



'फिर बिहार को एक नए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मिलते हैं।नीतीश राज्य में एक नया सिस्टम खड़ा कर दिया,वह सिस्टम जो लालू राज में लालू ही सिस्टम थे।उस सिस्टम पर नकेल कसने की कोशिश की।जो अपराधी लालू राज में सत्ता के हिस्सेदार थे,वो नीतीश राज में जेल की सलाखों के पीछे थे।नीतीश की पूरी राजनीति 15 सालों के जंगलराज के इर्दगिर्द घूमती रही। जयप्रकाश नारायण के दोनों चेले लालू और नीतीश बारी-बारी से बिहार की सत्ता पर काबिज तो हुए लेकिन लेकिन सामाजिक न्याय के नाम पर पिछले 30 सालों में बिहार की जनता के साथ धोखा ही किया।'


"इस किताब में वीर कुँअर सिंह का आरा कैसे ब्रह्मेश्वर मुखिया का आरा कैसे हो गया? जेपी और कर्पूरी ठाकुर का बिहार कैसे लालू और नीतीश का होगया।देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र बाबू के गाँव जीरादेई से खरतनाक गुंडों में से एक शाहबुद्दीन विधायक और संसद बनगया।गांधी के चंपारण में कैसे गैंगवार ने जगह लेली।वाल्मीकि के जंगल को कैसे डकैतों ने मिनी चंबल बना दिया।"



अनुरंजन झा की पुस्तक रामलीला मैदान के बाद दूसरी क़िताब है "गांधी मैदान"।उस किताब में उन्होंने ने अन्ना आंदोलन से आम आदमी पार्टी के राजनीतिक सफर की सच्चाई सामने लाने की कोशिश की थी।उसी प्रकार 'गांधी मैदान' में 30 सालों का हिसाब बताने की कोशिश की है।


बुद्ध-महावीर की धरती बिहार के पिछले 30 सालों की राजनीति को समझने के लिए "गांधी मैदानः Bluff of Social Justice" को सबको पढ़नी चाहिए।खासकर अगर बिहारी हैं तो बिल्कुल पढ़ना चाहिए, अगर राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं तो उनको जरूर पढ़ना चाहिए।

        - अरुणेश कुमार

गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

सभी के लिए आदर्श हैं श्री राम

सभी के लिए आदर्श हैं श्री राम

 


एक पुत्र के रूप में जब राजा दशरथ ने श्री राम को माता कैकेयी के कहने पर 14 वर्ष का वनवास दिया तो श्री राम ने एक बार भी नहीं सोचा और आदेश का पालन किया। एक भाई के रूप में श्री राम अपने सभी भाईयों लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न से अत्यंत स्नेह करते थे। जब उनको वनवास और भरत को शासन देने की बात हुई तो भी श्री राम को हर्ष ही हुआ कि भरत राजा बनकर शासन करेंगे। लक्ष्मण तो जैसे श्री राम की परछाईं ही थे। दोनों ने कभी भी एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। आज भी अनेकों घरो में भाइयों का नाम राम-लक्ष्मण रखा जाता है।


एक पति के रूप में श्री राम ने अपने सभी धर्म निभाए। वो उनका स्नेह और धर्म का पालन ही था माता सीता के प्रति जो उनको हज़ारों किलोमीटर दूर लंका तक लेकर गया उनकी खोज में, माता सीता और श्री राम भारतीय दंपतियों के लिए आदर्श है। श्री राम का नैतिक आचरण, सत्य, त्याग, धैर्य, करुणा, पराक्रम हर भारतीय को प्रेरित करती है।


लंका पर विजय पाने के बाद भी उन्होंने उसपर कब्ज़ा नहीं किया, बल्कि रावण के भाई वि‍भीषण को ही वहां का राजा बनाया। किसी का दमन करना, अतिक्रमण करना, यह हमेशा से भारत की परंपरा के विरुद्ध रहा है। इसीलिए राम मंदिर का निर्माण विश्व भर के लिए एक जीवंत सन्देश है। प्रभु श्री राम की तरह धर्म आधारित जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला एक मंदिर।

      -अरुणेश कुमार


शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

पुष्पम प्रिया चौधरी की बिहार की राजनीति में इंट्री,एक बेहतर सोच के साथ

 बिहार की राजनीति हमेशा चर्चा में रहती है, इन दिनों बिहार की राजनीति में एक नाम चर्चा में है। जो सीधे मुख्यमंत्री नितीश कुमार को चुनौती दे रहा है। अपने आप को सीएम उम्मीदवार भी घोषित कर दिया।



मैं बात कर रहा हूं लंदन से पढ़ी लिखी प्लूरल्स पार्टी की अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी की। जो चुनावी मैदान में उतरकर और राजनीति में शीर्ष पर पहुंचने के देसी रास्तों से अलग, खुद का रास्ता बनाकर, अपनी बनाई सियासी रास्ते पर चलकर राजनीतिक जमीन तैयार करने की कोशिश में लगी हैं।


मिस्ट्री गर्ल के नाम से भी पहचान बनाने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी उस वक्त चर्चा में आईं जब उन्होंने कुछ महीने पहले बिहार के सभी अखबारों में ख़ुद को ‘सीएम कैंडिडेट’ का फ्रंट पेज विज्ञापन देकर राजनीति में एंट्री की थी। लोगों के मन में सवाल उठने लगे की अचानक से पुष्पम चौधरी लंदन रिटर्न राजनीति में कैसे आ गईं। लोग ये भी कहने लगे कि पुष्पम प्रिया चौधरी राजनीति में जैसे अचानक आई हैं, वैसे ही अचानक एक दिन गायब भी हो जाएंगी।


हालांकि आपको बता दें कि पुष्पम प्रिया चौधरी के पिता जेडीयू से एमएलसी भी रह चुके हैं, वो अभी भी नितीश कुमार की पार्टी से जुड़े हैं। लेकिन पुष्पम चौधरी बिहार की राजनीति में कुछ अलग और नया करने की कोशिश में हैं।


चुनाव में हमेशा से देखा जाता है कि उम्मीदवार कैसा है उसकी छवि कैसी है। फिलहाल की राजनीति में देखें तो पार्टियों के जो कैंडिडेट हैं कहीं न कहीं अपराध में लिप्त हैं। लेकिन प्लूरल्स पार्टी की तरफ नज़र डालें तो आपका दिल खुश हो जायेगा। लोगों को मानना भी है कि राजनीति में पढ़े-लिखे, अच्छे, साफ नीयत के उम्मीदवारों को एंट्री मिलनी चाहिए।

ऐसा ही कुछ प्लूरल्स पार्टी में देखने को मिल रहा है, बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा दिख रहा है कि चुनाव मैदान में कई ऐसे उम्मीदवार किस्मत आजमाने की तैयारी में जुटे हैं जिन्हें ‘आईडल उम्मीदवार’ कहा जा सकता है।


पुष्पम प्रिया चौधरी ने अब तक अपने जितने उम्मीदवारों का ऐलान किया है उनका प्रोफाइल वाकई दिलों को जीतने वाला है। लोगों को अकसर जैसा कहते सुना है कि – चुनाव में अच्छे उम्मीदवार होने चाहिए, पढ़े-लिखे, समाज के प्रति संवेदनशील, जात-पात से उपर उठकर जन जन की फिक्र करने वाले नेताओं को टिकट मिलना चाहिए, पुष्पम प्रिया ने जितने उम्मीदवारों का ऐलान किया है वो सब वैसे ही है।

 प्लूरल्स पार्टी की अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी की बात करें तो वो मधुबनी ज़िले के बिस्फी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार होंगी।

प्लूरल्स पार्टी में एक और बात खास नज़र आई, इस पार्टी ने जितने भी उम्मीदवारों की घोषणा की है, उसमें जाति में उनका काम या प्रोफेशन लिखा गया है और धर्म में बिहारी। जिस तरीके से पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार को बदलने की बात करती हैं अगर उसमें से थोड़े की भी शुरूआत हो जाये तो बहुत कुछ बदल सकता है।



सोमवार, 24 अगस्त 2020

अरुणेश की डायरी-1

अब तुम चले गए हो लेकिन मेरा दिल नहीं मानता।फिर भी मैं तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं ढूंढ़ता हूँ? आज भी मैं हर रोज की तरह व्हाट्सएप खोलकर बैठ जाता हूँ।सिर्फ ये देखने केलिए की तुम मैसेज कर रही हो कि नहीं।कभी स्टेटस चेक करता हूँ तो कभी मैसेज देखता हूँ।पर अब तो स्टेटस भी देख नहीं पाता हूँ क्योंकि तुमने तो मेरा नंबर डिलीट कर रखी हो।दिन में न जाने कितनी बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही व्हाट्सएप  खोलता हूँ।पर तुम तो अब ऑनलाइन सजा देने से कोई कसर नहीं छोड़ रही हो।कितनी बार मैंने तुम्हें ऑनलाइन देख कर आंशू बहाए है।कितनी बार कहा है  तुम्हें मुझे तुम्हारी आदत हो गई है।फिर वही गलती।कितनी बार कोशिश की मैंने तेरी ख़बर लेने की पर मिली नहीं।कितनी बार खुद को सजा दी होगी याद भी नहीं मुझे।पर मेरी इतनी बड़ी गलती थी क्या जो माँफ  नहीं की जा सकती थी?

माना कि नाराज हो तुम मुझ से, तो क्या कभी मेरे बारे में सोचना है कि कोई जी रहा था खुद को मार कर?



अब तो शर्म भी आने लगी है अपनी चाहत पर।इश्क़ हुआ भी तो किससे जो मतलब केलिए दिल की जमीं पर आशियाना बना बैठा।

अब तो मैं भी सोचता हूँ कि खुद को बदल लूँ, पर मेरा दिल नहीं मानता है।लेकिन याद रखना जिस दिन मै बदलूंगा तुम तरस जाओगे मुझे पहले जैसे देखने के लिए।तुम मुझे खोज नहीं पाओगे इस जहांन में तो क्या अगले जहांन में भी तुम को मिलूंगा नहीं मै। 

कुछ यादें दिल में रहती है, कुछ तो बंद अलमारी में।डर भी रहता है कहीं वो आजाद न हो जाए और मेरा जीना हराम न कर दें।

आंशू तो अपने आप ही गिर जाते हैं।समझ नहीं आती है,फिर भी तेरी फ़ोटो को खुद से छिपा कर क्यों रखता हूँ? सच बात तो ये है ना मेरा दिल तुम से दूर होना चाहता ना ही मैं तुमसे खुद को दूर कर पा रहा हूँ।

 अरुणेश ✍️

गुरुवार, 4 जून 2020

ऑनलाइन शिक्षा है या जानलेवा

एक खबर केरल के मलप्पुरम से आ रही है।ऑनलाइन कक्षा छूट जाने की वजह से नौंवी में पढ़ने वाली एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली है।इस घटना ने समूची व्यवस्था पर तीखा सवाल खड़ी कर रही है,सरकार के द्वारा कोई भी नई व्यवस्था शुरू की जाती है तो क्या उसकी तैयारी पुर्ण रूप से नहीं की जाती है?क्या यह ध्यान रखने की जरूरत नहीं थी कि ऑनलाइन व्यवस्था कितने लोगों के पास पहुँच रही,कितने लोग वंचित हो सकते हैं।कोरोना संक्रमण  को रोकने केलिए सारे नियमित  शौक्षणिक संस्थान बन्द किए गए,जिससे बुरी तरह पढ़ाई बाधित रही।इसलिए सरकार ने विकल्प के रूप में ऑनलाइन  कक्षाएं संचालित करने की व्यवस्था की।तो क्या सरकार  काफ़ी संवेदनशील है बच्चों के पढ़ाई के प्रति जिसके लिए ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था की गई ताकि पढ़ाई बाधित न हो?तो क्या सरकार की सिर्फ यही मकसद थी या फिर....?


       मलप्पुरम में जिस लड़की ने खुदकुशी की, उसके घर मे टीवी खराब था और स्मार्टफोन नहीं था।तो अब सवाल यह है कि सरकार ने ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की ,तब क्या यह सुनिश्चित कर लिया था कि सभी बच्चों के पास  तकनीकी संसाधन की व्यवस्था है।मृतक दलित बच्ची के पिता मलप्पुरम में दिहाड़ी मजदूरी करके किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण करता है।पूर्णबन्दी के वजह से उनकी रोजी-रोटी छीन गई थी ऐसे में वो अपने बच्ची को ऑनलाइन पढ़ने केलिए स्मार्टफोन उपलब्ध नहीं करा सके।जिससे उस बच्ची का पढ़ाई बाधित हुआ,इससे वो पूरी तरह टूट गई और खुदखुशी कर ली।
हाँ यह बिल्कुल सही है इस लॉक डाउन ने ऑनलाइन शिक्षा पद्धति को अपनाया है।एक विकल्प के रूप में ऑनलाइन शिक्षा पद्धति बहुत जल्दी उभरी है।लेकिन क्या इसके पहले यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं है कि नियमित स्कूल-कॉलेज में पढ़ने सभी विद्यार्थियों की पहुँच तकनीकी आधुनिक संसाधनों तक है या नहीं? एक रिपोर्ट के मुताबिक आज भी चालीस प्रतिशत से ज्यादा लोगों के पास कंप्यूटर,लैपटॉप और स्मार्टफोन जैसे उपकरण नहीं है।खासकर ग्रामीण इलाकों में आज भी तकरीबन एक चौथाई आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है।ऑनलाइन शिक्षा पद्धति में सबसे ज्यादा लड़कियाँ ही प्रभावित होगी।क्योंकि के आज भी बहुत ऐसे घर हैं जहां उन्होंने स्मार्टफोन नहीं दी जाती।ऐसे में अंदाजा लगाना मुश्किल है कितने विद्यार्थी वंचित रह सकते हैं।इसके लिए सरकार को  सारे पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है ताकि कोई भी विद्यार्थी इससे वंचित न रह सके।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था

बदहाल शिक्षा व्यवस्था
वर्तमान में बिहार की शिक्षा व्यवस्था का हाल किसी से छिपी नहीं है।चाहे स्कूली शिक्षा हो या उच्च शिक्षा,सबकी दशा एक हो चुकी है।एक समय था जब बिहार शिक्षा के क्षेत्र में कीर्तिमान हासिल किया हुआ था।यहां के ज्ञान से पूरा विश्व  आलोकित हुआ करता था। नालंदा ,विक्रमशिला जैसे विख्यात शिक्षण संस्थान में पूरे विश्व के लोग शिक्षा केलिए बिहार आते थे।भारत के लिए गौरव हुआ करता था।
    आज वही बिहार की स्तिथि इतनी खराब हो जायेगी ये किसने सोचा था? राज्य के बदहाल शिक्षा व्यवस्था को इन आंकड़ो से समझ सकते हैं।वर्ष 2009 में लभगभ 27 लाख विद्यार्थियों ने पहली कक्षा में दाखिला लिया था,लेकिन वर्ष 2018 में करीब 18 लाख विद्यार्थियों ने बिहार बोर्ड  के दशवीं परीक्षा में भाग लिया।मतलब साफ है कि पहली से दशवीं ,आते-आते करीब 9 लाख बच्चे सरकारी स्कूल से बाहर हो गए।मौजूदा वक्त में क्या हालात हैं इस आंकड़ो से समझ सकते हैं?
  एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार के शिक्षा विभाग ने 2019 में  वैसे स्कूलों को बंद करने का निर्देश दिया था जहाँ 20 से कम छात्र होंगे।इसमें बिहार के 13 ऐसे विद्यालय मिले जहाँ एक भी छात्र का नामांकन नहीं हुआ था जबकि 171 ऐसे स्कूल थे जहाँ पर 20 से कम छात्रों का नामांकन हुआ था।इसी प्रकार 21 से 30 छात्रों की संख्या वाली स्कूलों की संख्या 336 तथा 30 से 39 छात्रों की वाली स्कूलों की संख्या 620 है।एक रिपोर्ट में तो यह भी कहा गया कि पहली और दूसरी कक्षा में बच्चों की संख्या करीब 20 फीसदी कम हो जा रही आठवी कक्षा के तुलना में।मतलब कहा जा सकता है कि हर  वर्ष नामांकन दर कम हो रही है तथा छात्रों को बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की संख्या ज्यादा हो रही।इसकी एक स्तिथि साफ-साफ नजर आ रही है कि बच्चे सरकारी लाभ लेने केलिए सरकारी स्कूलों में नामांकन तो लेते हैं लेकिन अच्छी शिक्षा के केलिए पब्लिक स्कूलों में दाखिला लेकर पढ़ाई कर रहें।इसके तमाम कारण हो सकते हैं।तकरीबन 95 फीसदी स्कूलों में छात्रों के तुलना में शिक्षकों की तदाद बहुत कम है।करीब 40 फीसदी स्कूलों में शौचालय तक नहीं है और जहाँ है भी वहाँ पर बच्चे जाते नहीं है तथा कुछ ऐसे जगह है जहाँ शौचालय तो बन चुकी है लेकिन आज तक चालू नहीं किया जा सका।अगर हम पुस्तकालयों की बात करें तो करीब 35-40 फीसदी विद्यालय ऐसे हैं जहां पुस्तकालय  नहीं है।  
  ऐसा नहीं है कि सरकारें नहीं चाहती है कि बच्चे स्कूल न आये।बच्चों के लिए 'मिड डे मील' की व्यवस्था की गई।ताकि बच्चे स्कूल में समय से आए और प्रतिदिन आए।सरकार 'मिड डे मिल' की व्यवस्था तो कराई लेकिन बच्चे केलिए खाने की व्यवस्था नहीं करा पाई।बच्चे या तो बाहर बैठकर खाते हैं या अपने कक्षा में।ज्यादातर विद्यालयों में तो रसोई नहीं है।इन सबके बावजूद आये दिन घोटालों के चलते सवालों के घेरे में रहता है 'मिड डे मिल' योजना।
केंद्र सरकार सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत हजारों करोड़  रुपये दिए जाते हैं।लेकिन शिक्षा के लिए कितने पैसे खर्च किये जाते हैं इन आंकड़ो से समझ सकते हैं।यहाँ तक बच्चों में शारिरिक और मानसिक विकास केलिए भी जो पैसे आते है वो भी सिर्फ खानापूर्ति केलिए की जाती है।तमाम ऐसे योजनाएं हैं जो फाइलों के साथ दब के रह जाती है।
सन 2008-09 में बिहार में इंटरमीडिएट की पढ़ाई केलिए उच्च विद्यालयों को उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में परिवर्तन करने की योजना बनाई गई।लेकिन इसे भी बिना किसी तैयारी के लागू किया गया।व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं किया गया।बिना किसी शिक्षक के इंटरमीडिएट में नामांकन शुरू कर दिया गया।जबकि इसके लिए पहले से विस्तृत योजना बनाना चाहिए था।सम्पूर्ण विषयों केलिए योग्य शिक्षकों की बहाली की जाती।शैक्षणिक संसाधनों की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए थी।लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया।
बिहार सरकार शिक्षा के क्षेत्रों में पूरी तरह से नाकाम रही है।गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के बजाय उनके भविष्य के साथ खेल रही है।
इसका सबसे बड़ा कारण बिहार में गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी।हमेशा बिहार में शिक्षकों का प्रदर्शन होते रहते हैं। शिक्षक अपने वेतन केलिए स्कूलों को बंद कर देते हैं जिससे पढ़ाई बाधित रहती है।लेकिन सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पाती है।
बिहार सरकार ने सन 2006 में बहुत बड़ी गलती की थी बिना किसी  दक्षता परीक्षा पास किए शिक्षकों की नियुक्ति करके।नियोजन के अधार पर शिक्षकों की बहाली की गई।जिसमें सिर्फ डिग्री की महत्ता दी गयी थी।ऐसे ऐसे शिक्षकों के   नियुक्ति के बाद बिहार में शिक्षा का स्तर भी कम हुआ।
ऐसे देखा जाए तो बिहार में निजी संस्थानों की स्थिति काफी अच्छी है लेकिन सरकारी संस्थाओं की  स्थिति उतनी ही खराब।स्पष्ट है कि सरकार सरकारी संस्थानों को समाप्त कर निजीकरण करना चाह रही है।निजी संस्थानों के द्वारा कैसे शिक्षा का व्यापार किया जा रहा है ये किसी से छिपी नहीं है।बिहार में शिक्षा व्यवस्था काफ़ी चिंतनीय विषय होगया है।सरकार को शिक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है।

अरुणेश कुमार

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)

विश्व स्वास्थ्य संगठन 
         World Health Organization
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का मुख्य लक्ष्य "सभी के लिए, हर जगह बेहतर स्वास्थ्य" है।  WHO की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को हुई थी इसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जिनेवा शहर में है।  वर्तमान में इसके 194 सदस्य देश हैं जबकि इसकी स्थापना के समय केवल 61 देशों ने इसके संविधान पर हस्ताक्षर किये थे।
   वर्तमान में WHO के सदस्य देशों में 150 ऑफिस हैं और पूरे संगठन में करीब 7 हजार कर्मचारी काम करते हैं. WHO, संयुक्त राष्ट्र संघ का हिस्सा है और इसका मुख्य काम दुनियाभर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में मदद करना है।
      WHO, वर्ल्ड हेल्थ रिपोर्ट के लिए जिम्मेदार होता है जिसमें पूरी दुनिया से जुड़ी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का एक सर्वे होता है.WHO मुख्य रूप से इन्फ्लूएंजा और एचआईवी जैसी संक्रामक रोग और कैंसर और हृदय रोग जैसी गैर-संक्रामक बीमारियों, स्वच्छ पानी की समस्या और कुपोषण से लड़ने में विश्व की मदद करता है और उनके ऊपर रिसर्च करता हैं।
        वर्तमान में यह संगठन दुनिया भर में कोविड 19 महामारी से लड़ने के लिए दिन रात मेहनत कर रहा है लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने इसके ऊपर पक्षपात करने के आरोप लगाते हुए इसको दी जाने वाली फंडिंग पर रोक लगा दी है।
वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुखिया टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस है जो कि इस पद पर पहुँचने वाले पहले अफ़्रीकी हैं. ऐसा कहा जाता है कि उनको यह पद चीन की वजह से ही मिला है. डब्ल्यूएचओ के मौजूदा डायरेक्टर जनरल ट्रेड्रॉस एडोनम ने अपना पांच वर्षीय कार्यकाल 1 जुलाई 2017 को शुरू किया था।
      इससे पहले के घटनाक्रम में टैड्रोस ने 28 जनवरी को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलने के बाद कोरोना बीमारी से लड़ने के लिए उनके प्रयासों की सराहना की थी जिसकी अमेरिका सहित विश्व के कई लोगों ने आलोचना की थी।
        अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह आरोप लगाया है कि यदि WHO ने चीन पर कोरोना से सम्बंधित जानकारी पूरे विश्व के साथ साझा करने के लिए दबाव बनाया होता तो अमेरिका में 20 हजार लोगों की जान नहीं जाती और विश्व में कोरोना वायरस इतना अधिक नहीं फैलता।
        ट्रम्प ने कहा कि जब WHO अपने उद्येश्यों में सफल नहीं है और इसकी कार्यप्रणाली से अमेरिका को कोई फायदा नहीं है तो फिर इसको हर साल 400 से 500 मिलियन डॉलर की आर्थिक मदद क्यों दी जाये?
           इस वित्त वर्ष के लिए WHO का कुल बजट 4422 मिलियन अमेरिकी डॉलर था जबकि 4417 मिलियन डॉलर का फण्ड उपलब्ध था जिसमें से 2292 मिलियन डॉलर खर्च हो चुका है।
        वित्त वर्ष 2018 के लिए कुल 2744 मिलियन अमेरिकी डॉलर, कार्यक्रम बजट राजस्व दर्ज किया गया था जिसमें सदस्य देशों का असेस्ड कंट्रीब्यूशन 501 मिलियन अमरीकी डालर शामिल है, जबकि वॉलेंटरी कंट्रीब्यूशन US$ 2243 मिलियन का था.इसमें भारत का योगदान इतना कम है कि उसका स्थान शीर्ष 20 देशों में शामिल नहीं है. शीर्ष 20 योगदानकर्ता, जिनका कुल राजस्व में 79% योगदान है।
            WHO ने कोरोनोवायरस महामारी से लड़ने में मदद के लिए मार्च में 675 मिलियन डॉलर के लिए अपील शुरू की और इसके बाद भी कम से कम 1 बिलियन डॉलर की अपील फिर से करने की चर्चा हो रही है।
                      अरुणेश कुमार
                 मीडिया अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय मोतिहारी

रविवार, 19 अप्रैल 2020

महामारी और बढ़ते मनमानी

*महामारी और बढ़ते मनमानी*
इस देश की अजीब विडंबना है।जब देश को कोरोना संक्रमण से लड़ने के लिए आपसी सहयोग की जरूरत है तब कुछ लोग नियमों की धज्जियां उड़ाते दिख रहें हैं,बल्कि प्रशासन और चिकित्सकों पर हमला करते देखे जा रहे हैं।जो लोगों को जागरूक करने केलिए तथा उनकी सेवा में दिन रात लगे हुए हैं, उन्हीं पर हमला करना कहाँ तक जायज़ है?मतलब साफ है कि आप अपने मौत का निमंत्रण दे रहें हैं।हाल की एक खबर सामने आई है पंजाब के पटियाला से जहां लोगों को नियमों का पालन करने केलिए पुलिस अधिकारी गए तो उनका हाथ काट लिया गया।एक घटना मुरादाबाद से आई जब एक व्यवसायी की मौत कोरोना संक्रमण से हुई तब पुलिस और चिकित्सकों का दल उन्हें समझाने केलिए गयी ताकि शव से दूरी बनाये रखें क्योंकि कोरोना का संक्रमण मृत शव से भी होती है।तब मुहल्ले वासी उन्हीं पर पत्थराव करने लगे।जिसमें सभी सदस्य घायल भी रहें।ऐसी हरकतों पर दंडनात्मक कार्रवाई भी हो रही है,पर लोग बाज नहीं आ रहे हैं।
आखिर ये क्योंकि नहीं समझ रहे हैं कि आपका आपके परिवार आपके समाज का जीवन सुरक्षित रहें इसलिए वो अपना जीवन दांव पर लगा कर आपके पास जा रहें हैं।ताकि आप कोरोना संदिग्ध लोगो से दूर रहें।मगर लोग ये बात समझने से बाज नहीं आ रहे हैं।यह समझना चाहिए कि आपके मुहल्ला और क़स्बा में एक व्यक्ति संक्रमण होता है तो पूरे समाज को संक्रमित कर सकता है।इसलिए ये ध्यान रखें कि संक्रमण मुक्त कराना प्रशासन की जिम्मेदारी है।इसमें आपकी सहयोग की जरूरत है,आपका धर्म ही नहीं कर्तव्य बनता है कि आप साथ दे।


अगर लोगों को लगता है कि उनके अधिकार का हनन हो रहा है तो ये गलत है।अधिकार होने का मतलब ये नहीं है कि आप संक्रमण को किसी दूसरे व्यक्ति में फैलाएं।आप प्रशासन का साथ न दें।लगातार मोबाईल से लेकर टीवी ,रेडियो तथा अखबार के माध्यम से जागरूक रहने केलिए संदेश दिए जा रहे हैं।फिर भी लोग गैरजिम्मेदाराना हरकत करने से बाज नहीं आ रहे हैं।प्रधानमंत्री के अपील के बावजूद भी घर से बाहर निकल रहें।अपनी जिम्मेदारी को ताख पर रख कर।
     ये ध्यान रखने की जरूरत है दुनिया के सभी देश आज संक्रमण के खिलाफ घुटने टेक चुकें हैं।जिसमें विकसित और उन्नत चिकित्सा व्यवस्था वाला देश भी है।ऐसे में आप प्रशासन का साथ देने के बजाय उनके नियमों और कानून को ताख पर रखकर अपनी मनमानी कर रहें हैं।
  हाल की घटना दिल्ली से है जहाँ एक चिकित्सक की  मौत ठोकर लगने से हो गयी।जिनकी गाड़ी खराब हो गयी थी।फिर भी अपने बेटे के साईकिल लेकर हॉस्पिटल चले गए।अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपनी जान गवां बैठे।
जिस देश मे एक डॉक्टर अपनी जान की परवाह किए वगैर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहें हैं उस देश में डॉक्टरों पर हमला किये जा रहे हैं, जो कि सर्वनाक है।
    *अरुणेश कुमार*✍

कोरोना और चपेट में दुनिया की अर्थव्यवस्था

कोरोना और चपेट में दुनिया की अर्थव्यवस्था


इस समय कोरोना से पूरी दुनिया में तबाही मची हुई है।तकरीबन ढ़ेड़  लाख लोगों की जाने जा चुकी है और ये आंकड़े लगातार बढ़ती जा रही है।लगभग 20 लाख से ज्यादा लोग इसके चपेट में आ चुके हैं।ये खतरा तो है लेकिन एक  दूसरा खतरा पूरी दुनिया के सामने तबाही मचाने वाली है।जिसमें पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चौपट होती दिख रही है।ध्यान देने की बात यह है कि अगर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी।तो कितने लोग भूखमरी के चपेट में आएंगे,कितने लोग बेरोजगार होंगे,कितने उद्योग-धंधे ठप हो जायेगी।कितने लोग बर्बाद होंगे और दुनिया के कितने देश दिवालिया हो जायेगी।हम सिर्फ इसका अंदाजा लगा सकते हैं।
  इस समय अगर पूरी दुनिया की बात करें तो अगर किसी देश की अर्थव्यवस्था 1% बढ़ती है तब दुनिया के अर्थशास्त्रियों मानना है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति  अच्छी नहीं है।यहाँ तक 3% भी होती है तब भी बहुत ख़राब मानी जाती है।खासकर अगर विकसित देश हो तो उसके लिए ये स्थिति काफी निराशाजनक होती है।
 अगर हम भारत की बात करें तो पिछले दिनों कहा जा रहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था 8% से ज्यादा जा सकती है।लेकिन 7% से 5% होगई।धीरे-धीरे यह 4.5% हो गई।लेकिन अब कुछ अर्थशास्त्रियों के विचार पर हम गौर करें तो कोरोना के वजह से भारत की अर्थव्यवस्था 1.6% पर आकर रुक सकती है।कुछ अर्थशास्त्री के विचार से तो इससे भी भयावह स्तिथि हो सकती है।हालांकि सरकार इन आंकड़ों को नकार रही है।
  अगर हम अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बात करें तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में तकरीबन 3-4% की कमी आ सकती है।अगर हम दुनिया के बड़े देशों की चर्चा करें, खासकर अमेरिका और यूरोप।
 अमेरिका के बारे में बताया जा रहा है कि इसकी अर्थव्यवस्था में 5.9% की गिरावट आ सकती है।यूरोप के बारे में कहा जा रहा है कि औसतन 7.5% की गिरावट आ सकती है।इटली जहाँ पर कोरोना का हालत सबसे खराब है वहाँ पर 9.1% की गिरावट होने की अंदाजा लगाया जा रहा है।अगर यही आंकड़ा बिल्कुल सही रहा तो इसमें से कितने देश दिवालिया होंगे,कितने लोग बेरोजगार होंगे,कितने लोग भुखमरी से मरेंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है।
       अगर हम चीन की बात करें तो इसकी अर्थव्यवस्था 1.2% पर आकर रुक सकती है।चीन में पिछले 30 सालों से कभी भी 7-8% से कम नहीं हुई थी।चीन के पिछले तिमाही के आंकड़ो में 6.8% की गिरावट आई थी।1992 में चीन ने अपना जीडीपी ग्रोथ पूरी दुनिया के सामने रखा था।उसके बाद से यह पहला आंकड़ा है जो गिरती हुई दिखाई पड़ रही है।
  चीन वही देश है जो सबसे पहले कोरोना की चपेट में आया था।यहां दो महीने तक लॉकडाउन था जिसे अब जाकर हटाया गया है।सिर्फ दो महीनों में 6.8% की गिरावट आई है।
 अमेरिका की ऐसी स्तिथि है कि वहाँ कुछ राज्यों के अंदर लोग सड़को पर उतर गए हैं।सरकार का विरोध कर रहे हैं  लॉक डाउन हटाने केलिए।ताकि अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सके।कारखाने चलाने की मांग की जा रही है।जानकारी के मुताबिक अमेरिका में पिछले एक महीने में 2 करोड़ 20 लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है।
  अगर हम यह कहें कि कोरोना पर विजय प्राप्त कर लेंगे तो हमारी अर्थव्यवस्था ठीक हो जायेगी।लेकिन कोरोना पर विजय तब ही प्राप्त हो सकती है जब तक इसकी कोई दवाई आ जायेगी और ये कहना तो बिल्कुल गलत है कि लॉक डाउन ही एक मात्र इलाज है।हाँ इसके द्वारा थोड़ा कम किया जा सकता है परंतु खत्म नहीं।
  अभी कुछ दिन पहले तक सिंगापुर के बारे में कहा जा रहा था कि कोरोना पर विजय प्राप्त कर ली है।वहाँ पर मरीजों की संख्या पूरी तरह से घट गई थी।पूरी दुनिया इसे चमत्कार के नज़रिए से देख रही थी।लेकिन अचानक पिछले सात दिनों में लगभग 6 हजार नए मरीज मिलने की खबरें आई है।
 विशेषज्ञों के अनुसार अगर कोरोना दुबारा से अटैक करता है तो पहले से भी ज्यादा खरतनाक होता है।
  जापान में भी यही कहा जा रहा था कि कोरोना कंट्रोल हो चुका है लेकिन पिछले 24 घण्टों में लगभग 600 नए मरीज मिलें हैं।
 अगर हम सुधार की बात करें तो पूरी दुनिया इसके लिए इकोनॉमिक पैकेज दे रही है ताकि अर्थव्यवस्था को किसी भी तरह से बचाया जा सके।भारत ने भी तकरीबन 1 लाख 70 हजार करोड़ इकोनॉमिक पैकेज का एलान किया है।अमेरिका तकरीबन 2-2.5 ट्रिलियन डॉलर पैकेज देने का एलान किया है।ताकि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके।
    अगर हम पूरी दुनिया की बात करें तो तकरीबन 8 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमिक पैकेज दिया गया है।लेकिन INF के अनुसार ये पैकेज भी बहुत कम है।
 इस आंकड़े के अनुसार पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत पर भी भारी संकट आने वाली है।
    *अरुणेश कुमार*
  

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

महामारी के बीच बढ़ती अफवाहें

महामारी के बीच बढ़ती अफवाहें

जिस महामारी से पूरी दुनिया जूझ रही है जिसमें भारत भी है।पिछले कुछ महीनों में जिस स्थिति में संक्रमण का प्रभाव बढ़ रहा है उससे एक भयावह स्तिथि पैदा हो रही है।भारत ही नही  बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती है कोरोना के इस महामारी से लड़ना। 
चीन के वुहान शहर से निकली ये बीमारी  आज पूरी दुनिया इसकी चपेट में आ चुकी है।दुनिया के एक सौ नब्बे से अधिक देश इसकी चपेट में आ चुके हैं।अमेरिका जैसे सर्वशक्तिशाली देश भी घुटने टेक चुके हैं।
वैश्विक महामारी की दर्जा पा चुके इस विषाणु का ईलाज तक नहीं उपलब्ध है।भले ही मानव आज अंतरिक्ष मे पहुंच चुका हो अपने रहने केलिए जगह तलाश रहा हो।चांद से लेकर मंगल तक घूम रहा हो लेकिन एक इस बीमारी के सामने विवश नजर आ रहा है।
प्रति दिन हजारों लोगों की जाने जा रही है लेकिन हम देखने के अलावा हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं।पूरी दुनिया हताश और निराश हो चुकी है।
दुनिया के डॉक्टरों की सलाह माने तो सिर्फ और सिर्फ सामाजिक दूरी के द्वारा इस महामारी को रोका जा सकता है।दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आरही है।मतलब सम्पूर्ण बंदी।
ख़राब अर्थव्यवस्था के बावजूद भारत में भी सम्पूर्ण बंदी को शख्ती ले लागू किया गया। 
जिस तरह से जिनती तेजी से कोरोना फैल रही है उससे कहीं अधिक तेजी से अफवाह।सरकार के तरफ से तमाम दिशा निर्देश दिए जा रहे हैं उसके बावजूद भी अफवाहों का बाजार गरम होती जा रही है।यह जानते हुए भी की सामाजिक दूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं है।फिर भी लोग अफवाहों का शिकार हो रहे हैं।जनता कर्फ्यू के बावजूद पिछले दिनों  अफवाहों के चलते दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन पर हजारों की संख्या में एक जगह इकठ्ठा हुए जो कि सरार गलत था।सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया में ये खबरें चलाई गई थी।भारत पाक विभाजन की तस्वीर से तुलना की जा रही थी।पिछले दिनों गुजरात के सूरत से भी गरीब मजदूरों की घटना सामने आई।कल एक बार फिर मुंबई से एक खबर आई एक साथ हजारों को संख्या में बांद्रा स्टेशन पर पहुँच गए।इसके कई पहलू दिखाई दे रहे हैं राजनीति भी हो रही है।पक्ष-विपक्ष में आरोप प्रत्योप भी खूब हो रही है।
अफवाहों की बात करें तो  सोशल मीडिया पर (फेसबुक, व्हाट्सएप) कई तरह से घरेलू नुख्से भी बताए जा रहे हैं। नमक,हल्दी से लेकर गाय के गोबर और गौमूत्र तक के नुख्से तक बताए जा रहे हैं।जिसकी पुष्टि चिकित्सा विशेषज्ञ नहीं करते हैं।
इन सबके बीच सुकून और राहत की खबरें आई चाहे वो तमाम सेलिब्रिटी के तरफ से हो या बिजनेस मैन के तरफ से
।सभी के द्वारा प्रधानमंत्री मंत्री राहत फंड में सहयोग किया।
या गरीब मजदूर वर्ग को खाना खिलाने की खबर हो या आर्थिक रूप से मदद करने की खबरें।जो मानवता की मिशाल है।मानवता तो हमारी संस्कृति में ही है।हम हमेसा से करते आ रहे हैं।आगे भी करेंगे।ऐसी हमारी संस्कृति है।
             *अरुणेश कुमार*✍