बुधवार, 21 सितंबर 2022

राहुल गांधी की पदयात्रा,भाजपा में खलबली

 राहुल गांधी की पदयात्रा,भाजपा में खलबली


जब राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकलने से पहले हल्ला बोल रैली किए।तब सबसे पहले लीटर और आटा का विवाद सामने आ गया।जैसे कुछ वर्ष पहले आलू से सोना वाला बयान को वारयल किया गया था।इस बार भी वीडियो को वायरल करने की कोशिश की गई।लेकिन भाजपा को बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मिली।क्योंकि अब लोगों को बहुत ज्यादा पसंद नहीं आता। सच बात तो यही है भाजपा ने राहुल गांधी पर वार करने की कोई कसर नहीं छोड़ा है।और भाजपा को सबसे बड़ी कामयाबी भी मिली है।चाहे तो 2014 का चुनाव हो या 2019 का।लेकिन मुझे लगता है इस बार यानि 2024 के चुनाव ये वार काम नहीं आने वाला। भाजपा को अब कुछ और तरीके तलाशने होंगे। क्योंकि हाल ही जैसे ही भाजपा ने टी-शर्ट पर सवाल उठाया उसमें वो खुद फंसने लगी। जैसे ही भारत जोड़ो यात्रा को भारत छोड़ो कहने की कोशिश की गई।लेकिन दांव उलटी पड़ गयी।जैसे ही स्मृति ईरानी ने विवेकानंद को लेकर राहुल गांधी पर सवाल किया।लेकिन फिर से भाजपा की फजीहत हुई।

भारत जोड़ो यात्रा जैसे जैसे बढ़ रही है वैसे वैसे कई पुरानी यात्राओं का जिक्र सामने आ रहा है।चाहे वो राजीव गांधी की यात्रा हो,चाहे वो विनोद भावे की यात्रा हो ,चाहे वो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की यात्रा हो। इन सारी यात्राओं को याद करने की वजह यह है को इन सारी यात्राओं के बाद भारत की सियासत में बदलाव हुए हैं। तो क्या कांग्रेस देश का माहौल बदलने में कामयाब होगी?

राहुल गांधी ने यात्रा की शुरुआत दक्षिण से किया है।दक्षिण वो कमजोर कड़ी है जहां पर भाजपा आज भी कमजोर है।तब जब वो अपने सबसे अच्छे दौर में है।हालांकि भाजपा को अनुमान है कि इस बार दक्षिण में बेहतर प्रदर्शन करेगी।भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह बयान नहीं भूलना चाहिए जब उन्होंने कहा था कि बीजेपी के अलावा कोई पार्टी इस देश में नहीं बचेगी।चाहे वो क्षेत्रीय दल हो या राष्ट्रीय। इस बयान का मतलब सिर्फ राजनीति ही हो सकता है। क्योंकि अगर कांग्रेस ख़त्म हो जाती है उसके बाद क्षेत्रीय दल भी खत्म हो जाएंगे फिर बचेगा कौन? कुछ दिन पहले शरद पवार ने भी कहा था कि जैसे जैसे कांग्रेस कमजोर हो रही है वैसे वैसे क्षेत्रीय दल मजबूत होती जा रही है।निश्चित तौर पर शरद पवार की बात सही भी लगती है जैसे अगर देखा जाए केजरीवाल की पार्टी एक क्षेत्रीय पार्टी है जिस तरह से उन्होंने दिल्ली से पंजाब तक विस्तार किया अब गुजरात में भी कोशिश कर रहे हैं। वैसे ही बंगाल में ममता बनर्जी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।हालांकि नीतीश कुमार और शरद यादव ने पहले ही कह दिया है कि कांग्रेस के बिना केंद्र की राजनीति सम्भव नहीं है।


दरअसल लोकसभा की राजनीति अलग क़िस्म की होती है।जहां दो दल आमने सामने होते हैं। जैसे एनडीए और यूपीए। आज के दौर में बीजेपी जितना मजबूत स्थिति में है उसके इर्दगिर्द भी कांग्रेस नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे एक जमाने में कांग्रेस भी हुआ करती थी। लेकिन एक सवाल यह भी है कि आज जिस स्थिति में बीजेपी है क्या वह अपने प्रदर्शन को बरकरार रख सकती है? यह अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। क्योंकि कांग्रेस को जितना खोना था उतना खो चुकी है।कांग्रेस के लिए इससे बुरी स्थिति क्या हो सकती है पार्टी के शीर्ष नेता ही पार्टी छोड़ कर जा चुके हो। चाहे वो गुलाम नबी आजाद हो या कपिल सिब्बल जैसे दिग्गज नेता।इसलिए देखा जाए तो कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन फिलहाल बीजेपी को भरोसा है कि वो अपने प्रदर्शन को बरकरार रख सकती है।लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए 2024 का चुनाव चुनौतीपूर्ण होने वाला है।


अरुणेश कुमार, चंपारण

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

बचपन सीरीज : 3

 बचपन : 2


रक्षाबंधन का वो दिन भी याद है।जब राखी अपने पसंद से ख़रीदवाते थे।अगर अपने पसन्द का राखी नहीं हुआ तो बंधवाते भी नहीं थे।


हमारे यहां नागपंचमी के दिन से ही हर चौक पर मेला लगता था।उस मेले में हम लोग जाया करते थे।मेला जाने के लिए अलग से तैयारी होती थी।जब पता चल जाता था कि नागपंचमी आने वाला है तो हमलोग पैसा जमा करना शुरू कर देते थे।मुश्किल से 5-10रुपये तक जमा कर पाते थे।तब तक मेला का दिन आ जाता था।घर से भी मुश्किल से 10-15 रुपये मिलते थे।उतना ही में पूरा मेला घूम लेते थे।उसी मेला से राखी भी ख़रीदवाते थे।


एक बार की बात है कि राखी के सुबह में ही बहन से झगड़ा हो गया।मार-पीट भी हुई।गुस्सा में बहन को बोले - हम तुमसे राखी नहीं बांधवाएंगे। वो भी बोली तुमको बांधने कौन जा रहा है।फिर पापा जी आते थोड़ा डांट लगाते।उसके बाद राखी बांधवा लेते।कभी कभी ऐसा भी होता था कि बहन के हिस्से वाला मिठाई भी छीनकर खा जाते थे।


ऐसे ही एक बार छोटे थे तब मेरी दीदी भी छोटी ही थी।दीदी से भी राखी बाँधवाने जाते थे। दीदी राखी के पहले से ही बोल देती थी कि इस बार बिना पैसा के राखी नहीं बांधेंगे।मेरा हमेशा की तरह जवाब रहता था ठीक है।जब दीदी के पास राखी बांधवाने जाते थे तब वो पहले ही पूछ लेती थी पैसा लाए हो।मैं झूठ बोल देता था हां।तब दीदी भी राखी बांधने के बाद पैसा मांगती थी। मेरे पास पैसा नहीं रहता तो दीदी बोलती थी।मेरा पैसा दो राखी बांधे हैं मिठाई खिलाए है।सबका पैसा दो तब ही जाने देंगे।उसके बाद लड़ाई झगड़ा होता था।फिर कोई आता झगड़ा शांत कराता।हम गुस्से में राखी तोड़ कर फेंक देते थे।उसके बाद चले आते थे। घर आओ तो राखी तोड़ने के लिए भी कुटाई होती थी।


समय बीतता गया अगले साल फिर राखी आयी।दीदी तो पहले ही बोल दी थी।इस बार बिना पैसा के राखी नहीं बांधना है।हम सुबह पर नहाकर दीदी के पास गए।इस बार तो दीदी पहले ही बोली पैसा देगा तब ही राखी बांधेंगे। थोड़ा बहस किए।लेकिन इस बार दीदी मनाने वाली नहीं थी।हम रोते हुए वापस आए।पापा जी दीदी बोली है पैसा मिलेगा तब राखी बांधेंगे।तो मेरे पापा जी बोले कि पूछकर आओ कितना पैसा चाहिए।फिर हम वापस दीदी के पास गए।वो बोली हमको पांच रुपया चाहिए।हम फिर पापा जी से आकर बोले।वो बोले कि अभी पैसा नहीं है जाकर पूछो कि दूध लेगी। क्योंकि मेरे उस समय मेरे घर गाय थी जो दूध दे रही थी। फिर हम दीदी से पूछे कि दीदी मेरे पास गाय का दूध है वही दे देंगे। तब दीदी मान गई। उसके बाद राखी तो बांध दी लेकिन मिठाई नहीं खिलाई।हम फिर वापस रोते गए। घर से ढाई सौ ग्राम दूध लाए।उसके पास मिठाई खाए।फिर दौड़ते हुए वापस आए।

ऐसे ही कभी दूध देकर तो कभी आम खिलाकर राखी बाँधवाते थे।उसके बाद भी प्यार बना रहता था।


अरुणेश कुमार 

Arunesh Kumar #RakshaBandhan

मोदी के लिए खतरा हो सकते हैं नीतीश

 *मोदी के लिए खतरा हो सकते हैं नीतीश*


नीतीश कुमार में क्या है कि भाजपा से अलग होते ही राजनीतिक गर्म हो चुकी है।कुछ लोगों का कहना है कि नीतीश की राजनीति खत्म हो गयी।जब उनकी राजनीति खत्म हो गयी तो फिर क्यों चर्चा हो रही है? क्या यह पहली बार है कोई पार्टी भाजपा से अलग हुई है? इसके पहले भी शिवसेना अलग हुई थी। अकाली दल भी अलग हुई। बिहार में ही उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी अलग हुई थी। तब तो कोई बात नहीं हुई थी।अब जदयू के अलग होने पर बवाल क्यों ? 

इसका सीधा मतलब है कि भाजपा के अंदर छटपटी होने लगी है।शायद अंदर ही अंदर डर हो रही है। क्योंकि यही नीतीश कुमार हैं जो सबसे पहले नरेंद्र मोदी का विरोध किए थे। वही उस समय जब पूरे देश में मोदी लहर बनाया जा रहा था।यहां तक मोदी के DNA वाले बयान को एक मुद्दा बनाकर पूरे बिहार में घूमे।

अगर देखा जाए तो बिहार के सबसे बड़े खिलाड़ी नीतीश ही हैं।चेहरा भी नीतीश हैं।फिर भी नीतीश बीजेपी के सामने नतमस्तक रहें।2020 के चुनाव में नीतीश के खिलाफ साजिश करके जदयू को BJP के द्वारा हानि पहुँचाया गया।फिर भी नीतीश भाजपा के साथ ही रहें।फिर अचानक क्या हुआ कि पार्टी तोड़ने का आरोप लगा कर नीतीश अलग होकर भाजपा के विपक्ष में चले गए। वो भी तक जब पूरे देश में विपक्ष को डराया जा रहा हो।

नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं।नीतीश कैसे अपने सामने से बड़े बड़े राजनेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं कोई समझ नहीं पाया।चाहे वो जॉर्ज फर्नांडिस हो ,दिग्विजय सिंह हो , शरद यादव हो या फिर राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले प्रशांत किशोर हो।

याद होगा 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार ने आखरी दांव खेलकर सबको चौका दिया था।जब उन्होंने एक रैली में कहा था कि यह मेरा आखिरी चुनाव है।उसके बाद रिजल्ट क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं है।


दरअसल नीतीश कुमार का यह आखिरी दांव है। अब वो देख रहे हैं कि कांग्रेस की सोनिया गांधी बीमार हैं।राहुल ग़ांधी की छवि को बिगाड़ा जा चुका है।उधर शरद पवार की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है।बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हालत क्या है यह बताने की जरूरत नहीं है।नवीन पटनायक का भी वही हाल है।मतलब विपक्ष के तरफ से नीतीश कुमार को टक्कर देने वाला कोई है नहीं।इसलिए भाजपा से नाता तोड़ते ही नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा था।यहाँ ध्यान देने की बात है कि पिछली बार कांग्रेस ,जदयू और राजद के साथ गठबंधन हुआ था तब इनके सामने मोदी लहर भी फेल हो गयी थी और इसबार तो सात राजनीतिक पार्टियों का समर्थन है।अब महागठबंधन के पास नीतीश कुमार जैसे नेता हैं।अगर जातीय समीकरण से देखा जाए तो सबसे ज्यादा समर्थन बल है। इसी कारण से नीतीश कुमार देश की सक्रिय में फिट बैठ रहे हैं।

अगर नीतीश कुमार विपक्षी पार्टियों को एक जुट करने में सफर रहते हैं तो नरेन्द्र मोदी के लिए नीतीश खतरे से कम नहीं होंगे।क्योंकि नीतीश के साथ सिर्फ बिहार ही नहीं सारी विपक्षी राज्यों का समर्थन मिलेगा। चाहे वो झारखंड,उड़ीसा, बंगाल, आंध्र प्रदेश, राजस्थान ,तेलंगाना, तमिलनाडु,पंजाब या दिल्ली हो। सबका समर्थन नीतीश को मिल सकता है। क्योंकि ये सभी चाहते हैं कि भाजपा को सत्ता से बाहर करना है।

नीतीश एक ऐसे चेहरे हैं जिनके ऊपर भ्रष्टाचार जैसे कोई आरोप नहीं लगे हैं।जो BJP के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं।अगर BJP कुछ आरोप लगाती भी है तो उसके लिए वो स्वयं जिम्मेदार हो सकते हैं।क्योंकि नीतीश के साथ बिहार में सबसे ज्यादा दिन वहीं रही है।




मंगलवार, 9 अगस्त 2022

बचपन सीरीज : 2

 बचपन से ही क्रिकेट कमेंट्री सुनने से ज्यादा मजा क्रिकेट देखने में आता था। टीवी पर देखने का विकल्प नहीं मिल पाता तब रेडियो तो था ही। ऐसे ही एक बार भारत और पाकिस्तान का मैच शुरू होने वाला था। लेकिन लाइट पिछले कई दिनों से आई नहीं थी। और हवा भी तेज चल रही थी क्योंकि उस समय लाइट की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी इसलिए थोड़ा भी हवा बहना शुरू होती थी कि लाइट गायब।इसलिए पता था कि टीवी देखने का जुगाड़ नहीं लग पायेगा।फिर हमने तय किया कि रेडियो पर ही सुना जायेगा।

उस समय स्कूल मॉर्निंग ही चल रही थी।तो हम स्कूल चले गए। संयोग से दिन शुक्रवार था।हर शुक्रवार के शुक्रवार हमारे स्कूल में हाफ टाइम के बाद खेल खेलाया जाता था। हमलोगों को खेलने के क्लास से बाहर निकाला गया। उसी बीच में पता चला कि स्कूल के बगल में ही मेरे दोस्त के घर मैच चल रहा है। हम बिना पूछे स्कूल से निकल गए क्रिकेट देखने। अभी 3-4 ओवर ही देखे थे कि किसी ने स्कूल में खबर कर दी।

हमें बुलाने के लिए स्कूल से बुलावा आया।हम नहीं गए।कुछ ही समय बाद 2-3 लड़के आए मुझे टांग कर ले गए।स्कूल में पहुँचने के बाद खूब धुलाई हुई। क्योंकि एक गलती यह भी थी कि मेरे साथ 4-5 लड़के और भी थे। सबने मेरा नाम ही लिया।कि इसी के कहने पर गए थे। जिसके चलते मेरी धुलाई थोड़ा ज्यादा हुई। 

अब समय 11 बजे चुके थे।स्कूल की छुट्टी हुई।हम फिर मैच देखने निकल गए।तब तक हवा भी तेज हो चुकी थीं। उस समय टीवी देखने के लिए एंटीना का इस्तेमाल किया जाता था।हवा तेज होने के चलते टीवी पर पिक्चर फ्रेश नहीं आ रहा था।एंटीना को बांस के सहारे खड़ा किया गया था।हवा तेज होने के चले बार बार एंटीना दिशाहीन हो जा रहा था।

उसके लिए एक जुगाड़ लगाया गया कि एक-एक ओवर एक लड़का बांस को पकड़े रखेगा।फिर दूसरे ओवर के बाद दूसरा लड़का।चूंकि मैच देखने वाले 10-12 लोग थे इसलिए हर 10-12 ओवर के बाद मौका मिलता था। हालांकि अंत तक क्रिकेट देखा गया। जिसमें भारत की जीत भी हुई।


......बने रहे हमारे साथ इसके आगे की कहानी बहुत जल्द ही।


सोमवार, 8 अगस्त 2022

बचपन सीरिज :1

 

कभी कभी दिन के सन्नाटे पुराने लम्हों की याद दिलाते हैं।मुझे याद है बचपन में मुझे टीवी देखने का बड़ा शौख था।उस समय गांवों में जिनके घर ब्लॉक & वाइट टीवी भी होता तो खुद को अमीर समझता था।आप पास में चर्चा भी होती थी अरे उनके टीवी है।  उस समय केबल का जमाना भी नहीं था वहीं  DD1,Metro और एक कोई नेपाली चैंनल पकड़ता था। उसे ही देखने के लिए काफी भीड़ होती थी। उस वक्त बहुत कम गांवों में बिजली भी पहुँची थी।बिजली का पोल और ट्रांफॉर्मेर तो था लेकिन लाइट तो आती नहीं थी।लाइट आती भी थी तो कभी दो-तीन दिन पर तो कभी महीनों दिन पर।
बहरहाल, टीवी देखना पसंद तो था लेकिन अपने घर टीवी थी नहीं।तो हम अपने घर के आसपास टीवी देखने जाया करते थे। घर की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी थी नहीं कि टीवी खरीदा सकें। तो जब भी टीवी देखना होता तो अपने बगल के घर में जाया करते थे। पहले तो खूब मजे से देखें।मजा भी आने लगा।धीरे धीरे स्थिति ऐसी थी कि स्कूल से आओ बस्ता फेंको और टीवी देखने दौड़ जाओ।उस समय हम शक्तिमान और जूनियर जी देखते थे।


बाद में वे लोग टीवी तभी दिखाते थे।जब तक उनके घर का सारा काम न कर दूं।कभी पानी पिलाओ तो कभी बाहर से कोई सामान खरीद कर लाओ।यहां तो टीवी देखना था उसके खुशी में कोई कुछ भी कराए चाहे वो शोषण ही क्यों न हो।क्या फर्क पड़ता है? समझ तो रहती नहीं।मतलब तो सिर्फ टीवी देखने से रहता था।


कभी कभी ऐसा भी होता था।लाईट आई और हम टीवी देखने के लिए दौड़ जाते थे।उनके घर जाओ तो टीवी बंद कर देते थे।और हम वापस मुँह लटकाए अपने घर आ जाया करते थे। परिस्थिति ऐसी थी कि अपने घर में भी नहीं बता सकते थे।क्योंकि अगर घर पर बताओ तो यहां भी पिटाई खाओ।क्यों गए थे टीवी देखने।इस तरह के तमाम सवालों से गुजरना पड़ता था।


इसके बाद भी कभी कभी मन करता था कि अब से टीवी देखने नहीं जाएंगे।अपने घर टीवी होगा तो देखेंगे।लेकिन जैसे ही शक्तिमान का प्रोमो शुरू होता।सारा दुःख दर्द को भूलकर दौड़ जाते।कई बार तो ऐसा हुआ जैसे ही दौड़कर गए कि लाइट कट गई।फिर मुँह लटकाए वापस आ जाते या कुछ देर वहीं इंतजार करते रहते थे।
खैर उसके कई सालों बाद हमारे घर भी टीवी आई।जिसकी कहानी फिर कभी।


रविवार, 7 अगस्त 2022

यार जादूगर : नीलोत्पल मृणाल

 लेखक नीलोत्पल मृणाल की ये तीसरी किताब है, पहली दो किताब भी मैने पढ़ी है, तीनो किताब बिल्कुल अलग ही विषय वस्तु को आधार बना कर लिखी गई है।

यार जादूगर है गांव-कस्बों में रहते किरदारों की कहानी, व्यवस्था की कहानी, जीवन के सार की कहानी। सार का मतलब  सामाजिक व्यवस्थाओं पर व्यंग्य से लेकर जीवन के अध्यात्म तक का यह पूरा पैकेज है। इसके पात्र हंसाते हैं लेकिन उनकी व्यंगात्मक शैली वर्तमान पर चोट भी करती है। किसी सीरियल की तरह दिमाग़ में दृश्य बनते जाते हैं।

प्रस्तुति अद्भुत है, शब्दो और मुहावरों का प्रयोग अति सुंदर है

पात्रों की भाषा, आम बोलचाल की भाषा है जिसे ठेठ बिहारी कह सकते हैं।

किताब के कुछ व्यंग्य हमें पिछली किताबों के नीलोत्पल मृणाल की याद दिला देते हैं।

अंत में इतना ही कहूंगा कि अगर नए लेखकों में दिलचस्पी रखते हैं तो इस किताब को पढ़ लेने में कोई गुरेज नहीं है।



बुधवार, 13 जुलाई 2022

बिहार में बदहाल है शिक्षा व्यवस्था

 


आज के समय में जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था बिहार में है, वह किसी हद तक संतोषजनक नहीं हैं। किसी भी राज्य के विकास में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है।वहीं बिहार सरकार हमेशा शिक्षा में सुधार के दावे करती नजर आती है।लेकिन हकीकत क्या है ये भी किसी से छुपी नहीं है।विद्यालय,महाविद्यालय से लेकर यूनिवर्सिटी तक बदहाल स्थिति में है।आज एक बार फिर बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा हो चुका है।मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार में एक लड़का यह कहते हुए नजर आ रहा है कि 'सर मैं बीए पार्ट वन का छात्र हूँ,मैं वीर कुवांर सिंह विश्वविद्यालय,आरा का छात्र हूँ।सर मेरा एडमिशन 2020 का है और मेरा अभी तक पार्ट वन का रिजल्ट नहीं आया है।जब पार्ट का रिजल्ट निकालने में दो साल का समय लग जा रहा है तो बीए पास करते-करते छः साल लग जाएंगे।' पिछले दिनों भी पाटलिपुत्रा यूनिवर्सिटी के छात्र हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे थे लेकिन सरकार के तरफ़ से सिर्फ सांत्वना ही मिला है।


देश के भविष्य बनाने वाले शिक्षक भी कम नहीं हैं।उनका भी एक मामला बापू की कर्मभूमि चंपारण से आया।जहाँ SDO एक विद्यालय में औचक निरीक्षण करने पहुँच गए।पर्यावरण पढ़ा रहे शिक्षक से जलवायु और मौसम में अंतर पूछ लिया।तो मास्टर साहब का मौसम खराब हो गया। हेडमास्टर के कमरे में गए। हेडमास्टर से पूछा, मैं स्कूल जाता हूँ, अंग्रेजी में क्या बोलेंगे अनुवाद करें।तब हेडमास्टर साहब भी जवाब नहीं दे पाए।


यह कटु सत्य है कि सरकारी विद्यालय/महाविद्यालयों में नियमित क्लासेज नहीं हो रही हैं। राज्य के अधिकांशतः उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय व उच्च माध्यमिक विद्यालय शिक्षक विहीन हैं। बावजूद इसके प्रत्येक वर्ष वहाँ से सैकड़ों विद्यार्थी मैट्रिक व इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर रहे हैं। आश्चर्यजनक है कि मध्य विद्यालयों के शिक्षकों के भरोसे उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय चलाए जा रहे हैं।


फिर भी बिहार बोर्ड से पास होने वाले छात्रों की संख्या अन्य बोर्ड के मामले में प्रतिशत अधिक ही रहता है।शिक्षा विभाग भी डुगडुगी पिटती है कि इस साल बिहार बोर्ड से लगभग 80-85% तक पास हुए। यह बात सही भी है कि बिना अध्यापक और बिना अध्यापन के यदि रिजल्ट रेकॉर्ड तोड़  रहता हो तो फिर शिक्षक बहाली की क्या आवश्यकता है?

परीक्षा पास कराने वाले शॉर्टकट से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे टिक नहीं पाएंगे। विश्व बैंक की 2015 की रिपोर्ट बताती है कि गणित व विज्ञान में हमारे विद्यार्थी कमजोर हैं।


दरअसल बिहार में जो शिक्षक हैं भी तो उनके पास पढ़ाने के लिए समय भी नहीं है। क्योंकि शिक्षकों के पास पढ़ाने के साथ-साथ कई काम हैं।जनगणना करना, जाति गणना करना तो मध्याह्न भोजन बनवाना।ऐसे कई सारे काम में भी उलझ जाते हैं।


राज्य में शिक्षकों के लगभग 2.5 लाख पद खाली हैं। कक्षा 6 से 8 तक के विद्यालयों में शिक्षकों की सबसे अधिक कमी है। राज्य में कोई ऐसा विद्यालय नहीं है, जहां एक साथ सभी विषयों के शिक्षक मौजूद हों। राजधानी पटना के साथ राज्य के लगभग सभी विद्यालयों का हाल ऐसा ही है। टीचरों की कमी से बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा नहीं मिल रही है।


एक ओर जहाँ शिक्षकों की घोर कमी है वहीं शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी, एसटीईटी) उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की एक बड़ी संख्या सड़कों पर बेरोजगार घुम रही है और लगातार संघर्ष करते हुए पुलिस की लाठियां खा रही है।तो वहीं सरकार रिजल्ट दिखा रही है।


सरकार की दावा की पोल तब खुलती है जब एक सर्वे में बताया गया कि 10% स्कूलों के पास भवन नहीं हैं। 50% में चहारदीवारी नहीं है। 30 % के पास खेल के मैदान हैं। 10 फीसदी के करीब स्कूलों में लड़के या लड़कियों के लिए अलग शौचालय का अभाव है।और जहाँ भवन हैं भी तो वो सिर्फ दिखाने के लिए ही है।क्योंकि भवन कब ध्वस्त हो जायेगा यह कोई नहीं जानता।


सरकार दावा करती है कि शिक्षा के क्षेत्रों में काफी विकास हुआ है लेकिन यह नहीं बताती है कि सरकारी स्कूलों में सभी सुविधाओं के बाद भी बच्चे टिक क्यों नहीं पा रहे हैं? अधिकांश बीच में ही पढ़ाई छोड़ दे रहे।


गुणवतापूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षा विभाग, गांव के शिक्षित लोग, संकुल संसाधन केंद्र आदि को पूरी सक्रियता से मिशन की ओर लगना पड़ेगा, तब बदलेगी शिक्षा व्यवस्था तब बिहार देश के अग्रिणी राज्यों में होगा शामिल।


अरुणेश कुमार Arunesh Kumar ✍️

#चंपारण #बिहार #educationsystem

रविवार, 17 अप्रैल 2022

भाजपा कब तक मोदी भरोसे चुनाव जीतती रहेगी?

 हाल ही में पाँच राज्यों का चुनावी नतीजा से साफ साबित होता है कि देश में नरेंद्र मोदी का जलवा कायम है.ये भी सिद्ध हो गया कि पार्टी मोदी के दम पर ही आगे बढ़ रही है.चुनाव का नतीजा साफ-साफ दर्शाता है कि भाजपा में भी क्षेत्रीय नेताओं का कद इतना बड़ा नहीं है कि अपने बूते किसी भी राज्य में सरकार बनवा सके. पंजाब को छोड़ दें तो बाकी के चार राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा में भाजपा की ही सरकार बनी.राजनीतिक पंडितों का मानना था कि लगातार पाँच साल सत्ता में रहने के बाद भाजपा के प्रति लोगों की नाराजगी है इसलिए सरकार बनाने में मुश्किल होगी.ऐसे में सभी प्रदेशों में सरकार बनाना भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी.उत्तर प्रदेश को लेकर भी चुनावी विश्लेषकों का मानना था कि वहां योगी नहीं बल्कि अखिलेश की वापसी होगी.ऐसा दिख भी रहा था क्योंकि यूपी के ब्राह्मण समाज योगी से काफ़ी नाराज़ चल रहे थे.किसान आंदोलन के चलते जाट समुदाय में भी काफी नाराजगी थी.विरोधी दल के नेताओं के द्वारा भी योगी पर जातिवाद का आरोप भी लगाया जा रहा था.ऐसे में चुनाव जीतना ही योगी के लिए सबसे बड़ा चुनौती था.भाजपा के लिए चिंता का विषय भी बना था कि अगर यूपी में भाजपा की हार होती है तो 2024 में प्रधानमंत्री मोदी का राह आसान नहीं होता.

तमाम परिस्थितियों को देखकर प्रधानमंत्री मोदी ने यूपी चुनाव की कमान अपने हाथों में ले ली.मोदी के साथ गृह मंत्री अमित शाह भी मैदान में उत्तर गए.जहां नरेंद्र मोदी एक के बाद एक रैलियां करने लगे वहीं गृहमंत्री जमीन पर उतर के वोट बटोरने लगे.मेरा मानना है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मेहनत के बदौलत ही लोगों की नाराजगी दूर हुई और पुनः सत्ता में वापसी का रास्ता साफ हुआ. 

चुनाव के नतीजा भी भाजपा के पक्ष में रहा.हालांकि उत्तराखंड में भाजपा के ही मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी बुरी तरह से चुनाव हार गए.लेकिन इसके बावजूद भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही.मणिपुर में भी भाजपा ने 32 सीटों के साथ सरकार बनने में कामयाब रहीं.गोवा में भी पहली बार 20  सीटें जीती.

उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के चुनाव हारने के बावजूद भी मुख्यमंत्री बनाया गया.वही उत्तर प्रदेश में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी बुरी तरह से चुनाव हार गए.इसके बावजूद भी भाजपा ने उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद दिया.गोवा में भी युवा चेहरे को आगे रखते हुए दूसरी बार प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री बनाया गया.हालांकि प्रमोद सावंत भी मुश्किल से अपना सीट बचाने में कामयाब हुए थे.

भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार एक के बाद एक चुनाव जीत रही है.सदस्यता के मामले में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी हो चुकी है.इतना सब कुछ होने के बावजूद भी पार्टी आज भी नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द घूमती है.चाहें वो कोई भी चुनाव हो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को उतना ही मेहनत करनी पड़ती है जितना 2014 में किया था.इन दोनों नेताओं के अलावा आज भाजपा में कोई नेता नजर नहीं आता जो अपने दम पर कोई चुनाव जीता सके.कहने के लिए तो भाजपा में नेताओं की कमी नहीं है. कैबिनेट मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक भाजपा में भरें पड़ें हैं लेकिन कोई भी नेता मोदी के जैसा लोकप्रिय नहीं है.भाजपा में भी वैसे नेताओं की कमी नहीं है जो मोदी के नाम पर ही चुनाव जीतते रहें हैं.ऐसे में भाजपा को चाहिए कि सर्वे करा कर उन नेताओं को पार्टी से बाहर के रास्ता दिखाएं जिनका अपना कोई वजूद नहीं सिर्फ मोदी और जातिवाद के नाम पर जीतते रहें हैं.भाजपा को अब युवाओं को आगे बढ़ाना चाहिए.जो आगे चलकर पार्टी का नेतृत्व भी कर सके.



मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

कांग्रेस का अध्यक्ष कौन ? गांधी परिवार या गैर-कांग्रेसी

 हाल ही में पाँच राज्यों का चुनावी नतीजे आए हैं।भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए प्रचंड जीत के साथ सरकार बनाई है।वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी पहली बार जबरदस्त जीत के साथ सरकार बनाई है।इसके साथ देश की सबसे पुरानी पार्टी को करारी हार का सामना पड़ा है।हार का कारण जो हो लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए अच्छी खबर नहीं है।

बीते कुछ विधानसभाओं पर नजर डाले तो कांग्रेस का प्रदर्शन काफ़ी निराशाजनक रहा है।बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल और असम तक हर चुनाव में कांग्रेस पतन की ओर बढ़ रही है।इसे देखकर यह कहना उचित होगा कि कांग्रेस का चुनाव हारने का फार्मूला बहुत सफल रहा है।यही बात चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी के युवा सांसद व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी कहा था "चुनाव कैसे हारते हैं ,ये कांग्रेस से सीखना चाहिए"।


दरअसल, कांग्रेस के इतिहास में एक साथ तीन नेता गांधी परिवार से सक्रिय राजनीति में है।ऐसे में पार्टी की ये हालात हो चुकी है कि आए दिन कांग्रेस डूबती जा रही है।पिछले दिनों करारी हार के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया पार्टी से इस्तीफा की पेशकश कर दी।इस्तीफा देते हुए कहा कि 'अगर हम तीनों यानी सोनिया गांधी ,राहुल गांधी और प्रियंका  गांधी से दिक्कत है तो हम कोई भी त्याग करने को तैयार हैं।हमारा मन बिल्कुल साफ है पार्टी के प्रति, पार्टी से बड़ा कोई नहीं।'

ऐसी प्रतिक्रिया तब आई जब कांग्रेस को 2014 के बाद लगातार हार का सामना करना पड़ रहा है।हालांकि कांग्रेस कमिटी ने अध्यक्ष के चुनाव तक अंतरिम अध्यक्ष बने रहने का अनुरोध किया।इसके साथ ही राजस्थान के मुख्यमंत्री समेत कई कांग्रेसी नेताओं ने राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस की कमान संभालने की मांग की।


राजनीतिक पंडितों कहना है कि पार्टी अंदर की राजनीति से जब तक उबड़ नहीं पायेगी तब तक कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं होता।पार्टी के ही कुछ नेता जो राहुल और प्रियंका के समर्थन में मीडिया में बयान देते रहे हैं।यानी उनका कहना है कि कांग्रेस पार्टी का कमान इन दोनों के हाथ में होगा तो पार्टी बेहतर कर पायेगी।कार्यकर्ताओं में हिम्मत बढ़ेगी।

लेकिन राहुल गाँधी के राजनीति की बात करें तो उनका राजनीति ट्विटर से आगे नहीं बढ़ पाता।राहुल गांधी 2019 के  लोकसभा चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया था लेकिन इसके बावजूद भी पार्टी के कड़े निर्णय लेते नजर आए।जैसे पंजाब में मुख्यमंत्री बदलना और सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाना ही पार्टी को डूबा दिया।

वहीं प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा।




हालांकि सच्चाई यहीं है कि सोनिया गांधी हो या कांग्रेस पार्टी के सदस्य सभी चाहते हैं कि राहुल गांधी को ही अध्यक्ष बनाना लेकिन पाँच राज्यों में करारी हार के बाद पार्टी का शीर्ष नेतृत्व व गांधी परिवार ही सवालों के घेरे में है।साथ ही एक साथ दो सवाल पार्टी में चल रही है।पहला राहुल गांधी को अध्यक्ष कैसे बनाया जाए? दूसरा, पार्टी को कैसे बचाया जाए?


शनिवार, 29 जनवरी 2022

आम बजट

इस बार लगातार तीसरा साल होगा जब कोरोना संकट के बीच एक फरवरी को आम बजट आएगा। हालांकि पिछले दो सालों के मुकाबले हालात इस बार उतने खराब नहीं हैं। पर यह कहना भी सही नहीं होगा कि अर्थव्यवस्था संकट से निकल चुकी है। पिछले दो साल में अर्थव्यवस्था ने जिस तरह की भारी गिरावट झेली है, उद्योग-धंधे चौपट हुए हैं और उत्पादन गिरा है, उसका असर लंबे समय तक बने रहने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। 

सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की है। ऐसे में इस बार भी सरकार बजट में ऐसे कदमों को ही प्राथमिकता दे सकती है जो अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने वाले हों। इसके लिए ढांचागत परियोजनाओं पर खर्च करने पर जोर देना पड़ेगा। इधर उद्योग जगत पहले ही करों में राहत से लेकर दूसरी रियायतों की मांग कर रहा है। वहीं छोटे और मझोले उद्योग अभी तक भी महामारी से उपजे संकट से उबर नहीं पाए हैं। इसलिए देखने की बात यह होगी कि सरकार अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले एमएसएमई क्षेत्र के लिए क्या बड़े कदम उठाती है।



बजट पर हर किसी की निगाहें इसलिए भी टिकी होती हैं कि कहीं कुछ मिल जाने की उम्मीद रहती है, चाहे व्यापारी हों या फिर आम आदमी। जहां तक सवाल है आम आदमी का, तो वह ऐसा बजट चाहता है जिसमें कर रियायतें हों, महंगाई बढ़ाने वाला न हो और बचत बढ़ाने वाला हो। आज आम आदमी जिन मुश्किलों से जूझ रहा है, उसमें बजट से उम्मीदें और बढ़ जाना कोई गलत नहीं है। पिछले दो सालों में महामारी से पैदा हालात ने आम आदमी की जेब पर बुरा असर डाला है। बचत तो दूर की बात, रोजाना का खर्च चलाना लोगों को भारी पड़ रहा है।