सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

रुकतापुर : पुष्यमित्र

 

रुकतापुर' , घुमंतू पत्रकार पुष्यमित्र द्वारा रचित पुस्तक में बिहार के 73 वर्षों का लेख-जोखा है।इस किताब को एक पत्रकार की डायरी कह सकते हैं।जिसमें पुष्यमित्र के द्वारा आँखों देखी घटनाओं को तथ्यपरक विश्लेषण किया गया है।पुष्यमित्र ने  पूरी कहानी एक रिपोर्टर के अंदाज़ में ही लिखी है-
पुष्यमित्र पहले रेलों की ख़बर लेते हैं. किताब का नाम 'रुकतापुर' भी रेलवे की दुनिया से ही लिया गया है. 2015 में वे सहरसा से सुपौल जा रहे हैं. वे जिस ट्रेन में बैठे हैं, वह राघोपुर तक जाती है. बुलेट ट्रेन की कल्पना और चर्चा के इस ज़माने में इस ट्रेन को सहरसा से राघोपुर की 63 किलोमीटर की दूरी तय करने में चार घंटे लगते हैं- यानी 16 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार. मैदानी इलाक़ों में इतनी धीमी ट्रेन शायद ही दुनिया के किसी हिस्से में हो. पता चलता है, यह ट्रेन कहीं भी रोक ली जाती है. ऐसा ही एक स्टेशन है- मुक्तापुर, जिसकी तर्ज पर लोगों ने रुकतापुर बना लिया- यानी जहां भी ट्रेन रोक दी जाए- वह रुकतापुर स्टेशन है.ट्रेनों की कहानी को पुष्यमित्र बिल्कुल पटना तक ले आते हैं. 2018 तक पटना के हड़ताली मोड़ से चलने वाली एक ट्रेन का ज़िक्र बिल्कुल हैरान करने वाला है. जिसने वाकई वह ट्रेन चलती नहीं देखी है, उसके लिए यक़ीन करना मुश्किल होगा कि बीच पटना से ऐसी ट्रेन भी गुज़रा करती थी जिसे लोगों को सड़क से हटाने के लिए हॉर्न बजाना पड़ता था और कभी-कभी पटरी से लगी किसी गाड़ी के हटाए जाने का इंतज़ार करना पड़ता था. वे इस बात को पहचानते हैं कि बिहार में ट्रेनें बस मज़दूरों को ढोने और बाहर से पूजा के अवसरों पर घर लाने का काम कर रही हैं.

2019 में पूरे देश की नज़रें मुज़फ़्फ़रपुर की तरफ तब जा मुड़ी थी जब वहां इंसेफेलाइटिस यानी चमकी बुखार से बच्चों की मौत की खबरें सामने आ रही थी. लेखक ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक साफ दृष्टि देने का काम किताब में किया है. जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर अस्पतालों तक की कमी है और डॉक्टर तो डिबिया लेकर घूमने पर भी नहीं मिलेगा.


आंकड़ों का हवाला देकर लेखक बताता है, ‘राज्य सरकार ने जुलाई 2019 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जानकारी दी थी कि उनके राज्य में डॉक्टरों के 57 फीसदी पद और नर्सों के 71 फीसदी पद रिक्त हैं.’

इससे साफ समझा जा सकता है कि प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं का आखिर हाल कैसा होगा. कोरोना काल का ही जिक्र करें तो हमारे सामने ऐसी कई तस्वीरें आई थी जहां अस्पतालों में डॉक्टर नहीं है और स्टाफ की भारी कमी का सामना लोगों को अपनी जान गंवा कर करना पड़ा. ये भी विडंबना ही कही जाएगी कि महामारी के दौरान ही राज्य में कई बार स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव को बदलना पड़ गया.

बिहार में महिलाओं की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. एक तरफ तो वो शोषण का शिकार होती हैं वहीं सामाजिक दंश को भी झेलती हैं. लेखक उन प्रसंगों का ज़िक्र करता है जहां उत्तर प्रदेश और हरियाणा से आकर लोग प्रदेश की बेटियों से शादी करते हैं. लेकिन इसके पीछे की सच्चाई दिल-दहलाने वाली है. उन प्रदेशों में उनके साथ काफी खराब बर्ताव होता है और तस्करी का पूरा रैकेट काम करता है. लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि प्रदेश की महिलाओं की शादियां भी नहीं होती हैं जिसके कारण जीवन काटना उनके लिए दूभर हो जाता है.

रोज़गार के सवाल पर भी प्रदेश की स्थिति काफी खराब है. प्रवास इस राज्य की हकीकत बन गई है. राज्य में नए उद्योग लग नहीं रहे हैं और जो पहले से हैं उनकी उतनी क्षमता नहीं है कि वो लोगों को रोज़गार दे सके. इसलिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे राज्यों की तरफ लोगों को रोजगार की तलाश में जाना ही पड़ता है.

बिहार की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. रेलवे,बेरोजगारी,गरीबी, स्वास्थ्य, देहव्यापार, बाल विवाह, बिजली ,बाढ़,पानी जैसे तमाम समस्याओं का लेखा-जोखा  अपने कलमों के माध्यम से  उजागर करने का प्रयास किया है।कुल मिलाकर यह किताब कड़वाहट भरा तो है ही दर्द भरा भी है।बिहार के  तमाम घटनाओं को जानने समझने के लिए इस किताब को पढ़ सकते हैं।जो सरकार और बिहार की जमीनी हकीकत को बतलाती है।इस किताब (रुकतापुर) को राजकमल  प्रकाशन ने छापा है।



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